Saturday 22 September 2012

कल्याणी का कोप...



जसिरापुर और नसिरापुर दो गावं. इन दोनों गावं को विभाजित करके बहती हुई कल्याणी नदी. रात को जब इन गावों में बसे लोग दिन में खेत में किये गए हाड़तोड़ मेहनत की थकान खटिया पर लेट कर दूर कतरे उस समय कल्याणी की बहती धरा के कल-कल की ध्वनि उन थके-हारों किसानो पर तनिक का असर करती.

बहुत पहले कहते हें की इन गावं में हरियाली का कोई निसान तक नहीं था. तब इन दोनों गावं की सरहद आपस में जुडती थी. और इन्हें विभाजित करने के लिए तब यहाँ कल्याणी की धरा बहती न थी. दूर-दूर तक उसर बंजर ज़मीन. फसल का नामोनिसान नहीं. फसल तो दूर, पशूओं को चरने के लिए घास तक का अकाल. सो गावं के निवासी जीवन-भरण के लिए किसी दुसरे गावं में जाते और वहां के ज़मीनदारों और बड़े किसानो के खेतो में मजदूरी करते और तमाम हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी कभी-कभी दो वक़्त की रोटी न जुटा पाते.        

पर आज हालात अलग है गावं का सीना चीर कर उसे दो भागो में बाँट कर बहती कल्याणी नदी ने सारी की सारी ज़मीनों को हरा-भरा कर दिया. साथ ही गावं के बाशिंदों का जीवन भी. 

पर पता नहीं कभी-कभी कल्याणी का मिजाज़ बदल जाता और वो कल-कल की जगह हर-हर की ध्वनि से बहने लग्तिओर खेतों में उगी फसल के साथ साथ गावं के तमाम घर भी बहा ले जाती और पीछे चोर जाती न सुनाने वाला तबाही का मंज़र. कहते हैं अब यक के अपने इतिहास में कल्याणी ने एसा उपद्राव कोई दो-तीन बार ही मचाया है. 

लोगो से सुना वो इसी अविभाजित गावं की थी. पर आज-कल उसका इन दोनों गावं की सीमा के अन्दर प्रवेश बमुश्किल होता है. बेचारी को गावं के आस-पास देख कर ही लोग ढोर-पशु की तरह खदेड़ देते हैं. बच्चे भी उस पर धुल और माटी के ढ़ेले फेंक कर ताली बजा कर हँसते हैं.  बेचारी की उम्र होगी पेंसठ-सत्तर कें फेंटे में. ज़र्ज़र काय, सफ़ेद सुटली की तरह बाल, कोटर में धसीं आँखें और लाठी के सहारे चलता कमर से झुका बदन. उसे दोनों गावं के लोगो ने पागल या पगलिया की संज्ञा दे रखी थी.   

आज न जाने वो केसे नसिरापुर गावं में घुसने में सफल हो गई और कल्याणी गरजेगी का नारा बुलंद कर के गावं के चोपालों और गलियों के चक्कर काटने लगी. समाये था सुबह का नो-दस का सो तमाम मर्द थे खेतों पर. सो भूदिया को गावं में हो-हल्ला मचाने का अवसर  मिल गया.

थकी हुई वो एक नीम के पेड़ के नीचे सुस्ता रही थी. तभी उस पर खेत से घर के मर्दों को खाना देकर नज़र पड़ी. दोनों ही अल्हड, दोनों ही खिलता योवन,   एक का नाम लाली तो दूसरी का मिताली.

दोनों ही बुढिया के आस-पास बेथ गई.उन दोनों पर एक नज़र ड़ाल कर  बुडिया बुदबुदाई कल्याणी गरजेगी.
--दोनों ने ही सुना. दोनों ही कोमल मन की थी, दिल में दया भाव भी. पुचा- कल्याणी गरजेगी पर केसे काकी.
--दोनों अबोध तभी तो गरजने का अर्थ समझ नहीं आया. वो बुढिया लाली के गालो को सहलाते बोली- संभल जा बेटी,नहीं तो कल्याणी गरज पड़ेगी. 

लाली को तो कुछ समझ न आया मिताली यही थोड़ी समझदार. लोटे में बचे पानी को बुढिया को पिलाया फिर पूछा - काकी - कल्याणी के गरजने से लाली के सम्हलने का क्या अर्थ है.

बुढिया बोली - बेटी - संसार का तिलिस्म अजीब है, जब वो अपने सुख्दाताओं को सुखी नहीं देख सकते तो बाकी की बिसात ही क्या. मिताली कुछ और पूछती इससे पहले ही वो जर्जर काय बुढिया लाठी टेकते और कल्याणी गरजेगी को होठों में बुदबुदाती चली गई. 

आज नसिरापुर और जसिरापुर दोनों गावं में सन्नाटा है. पुलिस की गाडी आ चुकी है. एक-एक लाश का पंचनामा करके पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया गया है. तफ्तीश जारी है कुछ की गिरफ्तारियां भी हुई है. 

जसिरापुर का रहने वाला अनिल की बेदर्दी से ह्त्या कर दी गई है. लाश गावं के पास के जंगल सेमिली. कई दिनों से गावं में कानाफूसी थी. जसिरापुर का अछूत लड़का अनिल और नसिरापुर की स्वर्ण लड़की लाली के बिच कुछ चल रहा है. कई लोगो ने दोनों को अकेले गन्ने के खेत में देखने का दावा भी किया.

कल्याणी नदी पार के अनिल की मौत की खबर नसिरापुर पहुंची. लाली ने कोठरी की धन्नी से लटकते छल्ले में दुपट्टा बांध कर अपने गले में डाला और झूल गई.  

शाम होते-होते बूंदा-बंदी होने लगी और अँधेरा होते ही मुसलाधार बारिश. लोग घरों में दुबक गये. रात के न जाने कोंन से पहर  कल्याणी का कोप हर-हर करकर बदने लगा. चारो तरफ चीख - पुकार, हाय-तुंबा का मंजर. सुबह होते-होते बिलकुल शांति. दोनों गावं के तमाम घर कल्याणी ने लील लिए. फसलें बहा ले गई. जानवरों का कोई पता न चला. 

एक ऊँचे गावं में भाग कर लोगो ने जान बचाई. मिताली बेचारी सदमे में थी. कल ही उसने अपने बचपन की सहेली को खोया था और आज घर. शुक्र है उसके अम्मा - बाप्पा और बूढी दादी उसके साथ में थे.

मिताली का बाप कुछ भोजन की तलाश में गया. मिताली अपनी माँ और दादी के बिच सहमी बेठी थी, तभी वो पगलिया प्रकट हुई. बुदबुदा रही थी - कल्याणी गरजी न. मिताली ने होठो ही होठो में कहा हाँ तुन कल सच बोल रही थी. तभी मिताली की दादी बोली - 
ये तो हमेशा ही सच बोलती है.
क्या? मिताली ने सवाल किया.
दादी बोली - यही तो कल्याणी है. जो सुदर्शन से प्रीत लगा बेठी थी. घर का ही नौकर था. कल्याणी का घर ज़मीदारो का. बेचारा सुदर्शन नाहर की खुदाई में मजदूरी करता नदी से पानी लेन के लिए. गावं को हरा-भरा जो करना था.

कल्याणी जब कभी अवसर मिलता उससे बतियाती, फावड़ा चलने से सुदर्शन के हाथ में पड़े छाले सहलाती. ये भेद न जाने कैसे ज़मींदार पे खुल गया. 

जिस दिन नहर की खुदाई का काम ख़त्म हुआ, उसके पानी पर सुदर्शन की लाश तेर रही थी. उस लाश को देख कर कल्याणी पागल हो गई. सारे  गावं में बावली बनकर दोड़ते भागी. 

उसी रात नहर ने विकराल रूप रख लिया एक ही रात में वो नहर से नदी हो गई. सुबह ज़मींदार अपनी हवली सहित गायब था. बस तब से जब भी कोई प्रेमी या प्रेमिका गावं  वालो के झूठे दंभ की भेंट चदते हैं, कल्याणी कोप करती है.

दादी और भी बहुत कुछ बोल रही थी पर मिताली अब कुछ सुन नहीं पा रही थी. बस टुकुर-टुकुर जाती हुई पगलिया अरे नहीं कल्याणी को देख रही थी. ये सोचते हुए कल्याणी का कोप फिर कब होगा.

सुधीर मौर्य 'सुधीर'
गंज जलालाबाद, उन्नाव
२०९८६९ 

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