Tuesday, 18 September 2012

शायद शहर में बेवफा आ गयी है...




ज़माने में जो मिली न किसी को
मेरी जिंदगी में सजा आ गयी है

चारों तरफ हैं बहारों के मेले
मेरे घर में बस खिज़ां आ गयी है

सुबह से ही क्यों फूल मुरझा चले हैं
शायद शहर में बेवफा आ गयी है

अंधेरो से मेरे क्यों घबरा रहे हो
तेरी ज़ीस्त में तो शमा आ गयी है

ग़ज़ल संग्रह 'आह' से... 
    

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