Sunday 29 January 2017

अभिव्यक्ति की आज़ादी (लघुकथा) - सुधीर मौर्य

एक ठो वामपंथी स्त्री हैं, मेरी किसी पोस्ट को पढ़कर मुझ पे ज्ञान बघारते हुए बोली 'ये पद्मिनी काल्पनिक पात्र हैं फिर अगर कोई उन पर अपने हिसाब से कहानी लिखे या फिल्म बनाये तो तुम्हे क्या तकलीफ और फिर अभिव्यक्ति की आजादी पे कोई रोक नहीं लगा सकता।'
उनकी बात सुनकर मैने जवाब दिया 'हां अभिव्यक्ति की आजादी भी कोई चीज है।'
फिर कुछ देर रूक कर मै बोला ' तो मै भी अनोखे लाल और तुम्हारी प्रेमकहानी लिख सकता हूँ।'
' अरे कौन अनोखे लाल, मै तो इसे जानती तक नही और उससे मेरी प्रेमकहानी, क्या बकते हो. ' वो गुस्सा होते बोली।
मैने सहजता से कहा ' जी अनोखे लाल काल्पनिक पात्र है इसलिए उसकी प्रेमकहानी किसी के साथ लिख सकता हूँ, इसमे तुम्हे क्या तकलीफ आखिर अभिव्यक्ति की आजादी भी कोई चीज है।'
मेरी बात सुन के  वो मुझे खा जाने वाली नज़रो से घूर के बिना कहे कुछ चली गई।
--सुधीर मौर्य 

Tuesday 10 January 2017

कच्ची उमर का प्रेम - सुधीर मौर्य

टीन एज
लड़के - लड़कियाँ भी
करते हैं प्रेम
उनका प्रेम हमेशा आकर्षण नहीं होता
कभी पहाड़ो से उतरते पानी
और कभी पहाड़ो को देखकर
करते है प्रेम निभाने के वादे
भागती बाईक पे
बॉयफ्रेंड के पीठ से
चिपका कर अपने स्तन
लड़कियां जताती है अपना प्रेम
टीन एज जोड़े
कभी - कभी उतर जाते है
प्रेम की गहराई में
लड़के करते हैं जतन 
अपनी प्रेमिका को
बिनब्याही माँ बनने से बचाने का
   
वो भी देखते हैं 
एक - दूसरे के सपने    
लड़के स्कूल की किताब
हाथ में लेकर सोते हुए
खोये रहते है
अपनी प्रेमिका के
गुलाबी होठों और
बादामी रंग के स्तनों में
और लड़कियां बिताती है रात
अपनी नींद भरी आँखों में
अपने प्रेमी की
बदमाश शरारती सपनो से
सिहरती हुई।
--सुधीर मौर्य

Tuesday 3 January 2017

अस्थिर नेतृत्व का परिणाम - सुधीर मौर्य

तुमसे झेलम छीनी गई 

केसर के खेत छीने गए 
ढाका का मलमल और 
ढाकेश्वरी छीन लिए गए 
बामियान के बुद्ध 
और माता हिंगलाज 
तुम्हारे न रहे 
तक्षशिला और पुरुषपुर से 
तुम्हारा नामोनिशान 
मिट गया 
गांधार को 
तुम्हारी आँख के सामने 
कंधार बना दिया गया 
दिल कहे जाने वाली 
दिल्ली की गलियों को 
अकबर, औरंगजेब और 
तुग़लक़ के नाम पे 
बाँट दिया गया 
 चलो मान लेते हैं 
ये परिस्थिवश हुआ होगा 
पर आज, आज तो 
सामर्थ्य है तुम्हारे पास 
है नरों के इंद्र !
है राजाओ के नाथ !
फिर बंगाल क्यों 
हमसे छीना जा रहा है ? 
--सुधीर मौर्य

Sunday 1 January 2017

अधूरे पंख - सुधीर मौर्य

कितना भोलापन था उस दिन तुम्हारे चेहरे पर, मंदिर में राधा-कृष्ण की मूर्ति के आगे जब तुम हाथ जोड़कर खड़ी थी। मैं कभी तुम्हें और कभी मूर्ति को निहार रहा था। मंदिर से बाहर आकर गार्डन में टहलते हुए जब मैंने तुमसे पूछा, मुझसे शादी करोगी उस समय तुम्हारा चेहरा लाज से लाल हो गया था।
तुम मुँह से कुछ न बोली थी बस सर को हाँ के इशारे में हिलाकर आँखें नीची करके घास को देखने लगी थी। सच उस दिन मुझे अपरिमित खुशी मिली थी, पर मैं भी अपने होठों से कुछ बोल न सका था।
हम मंदिर परिसर से बाहर आ गये थे। तुम कालेज जाना चाहती थी। एक रिक्शा रोक कर हम उसमें बैठ गये थे। जीवन में सम्भवतः पहली बार मैंने किसी लड़की का हाथ पकड़ा था, तुमने सर उठाकर मेरी तरफ देखा था, सच तुम्हारी आँखों में बहुत गहराई थी जहाँ पर मैंने अपने लिए प्रेम देखा था। हमारे बीच बहुत कम बातें हुई थी, तुम्हारा कालेज आ गया था, मेरे हाथों से तुम अपना हाथ छुड़ाते हुए रिक्शे से उतरकर खड़ी हो गई थी। मैंने भी रिक्शे से उतरकर भाड़ा चुका दिया था। हम दोनों आमने-सामने खड़े थे-शांत-काफी देर में ये शांति तुमने ही तोड़ी थी, ये कहकर मैं जाँऊ मेरे होठों से बस इतना निकला था-हाँ। तुम चली गई थी हां कालेज के गेट पर पहुँचकर तुमने पलट कर मुझे देखा था। तुम्हारे कालेज जाने के बाद मैं कितनी देर वहाँ पर खड़ा रहा था।
आज हम मोतीझील में मिले थे, तुम्हारे साथ तुम्हारी फ्रेन्ड रेखा भी थी। आज तुमने गुलाबी सूट पहन रखा था, पर उससे भी ज्यादा तुम्हारा चेहरा गुलाबी लग रहा था और उससे भी ज्यादा गुलाबी थे तुम्हारे होठ।
रेखा ने ठिठोली करते हुए जब मुझसे पूछा था मैं आपको जीजा कहूँ या अस्मिता को भाभी। मैं तपाक से बोला था अस्मिता को भाभी, मेरी बात पर तुम शर्मा गई थी और नज़रें नीची करके घास के तिनके तोड़ने लगी थी। मैंने पहली बार किसी लड़की के बालों को छुआ था। मैं बहुत देर तक तुम्हारे बाल सहलाता रहा था और तुम यूंही सर झुकाये घास के तिनके तोड़ती रही थी। आज मैंने तुम्हें गुरूदेव पैलेस पर छोड़ा था जहाँ से तुम्हें अपने घर जाना था, तुम चली गई थी अपने घर और मैं लखनऊ।
तुम्हारा पत्र आया था मेरे मित्र के पते पर उसने कालेज में मुझे दिया था, तुमने बहुत बड़ा पत्र लिखा था पर उसकी दो बातें मेरे दिल के रास्ते मेरी आत्मा में उतर गई थी। तुम कह रही थी राजीव जब से तुम मिले हो मुझे लगता है मैं आसमान में उड़ रही हूं पंख लगाकर, यह पढ़ कर मुझे ऐसा लगा था जैसे मेरे भी पँख उग आये हो और मैं भी तुम्हारे साथ उड़ चला हूँ आकाश में अनन्त सफर पर। दूसरी बात जो तुमने लिखी, राजीव कुछ भी गलत काम करने से पहले तुम एक बार मुझको याद कर लेना। सच इस बात ने भी मेरी आत्मा पर दस्तक की थी। सच पूछो तो आज भी जब कोई गलत काम मुझसे होने लगता है तो तुम मुझे याद आ जाती हो और फिर मैं सब भूलकर तुम्हारे ख्यालों में खो जाता हूँ।
हर वीकेन्ड उस समय हमारी मुलाकात का गवाह था, हर शनिवार में अपने काॅलेज के हाफ टाईम के बाद के पीरियड अटैन्ड नहीं करता था, चारबाग से बस पकड़कर (हाँ उस समय रोडवेज का अंतर्राज्यीय बस अड्डा चारबाग में ही था। मैं कानपुर के लिये रवाना हो जाता था, तुम संडे को अपने रूम पर अकेली रहती थी, हाँ कभी-कभी तुम्हारे छोटे भाई-बहन होते थे पर उनसे हमारी मुलाकात में कभी अड़चन न आई थी। तुम मेरे सर को अपनी गोद में लेकर बैठी रहती और हाथों की अंगुलियों से मेरे बालों को सहलाती रहती, भावनाओं के आवेश में मैं जब कभी अपने गर्म हांठ तुम्हारे गुलाबी अधरों पर रख देता तो तुम खिसक कर मुझे अपने पहलू में ओर जगह देती और मैं न जाने कितनी देर तुम्हारी रोमहीन टाँगे सहलाया करता। मादकता के क्षणों में मेरे होठों से जब कभी तुम्हारा नाम निकलता-अस्मिता तो तुम्हारा आलंगिन ओर सख्त से जाता।
हाँ उस दिन वर्ष का पहला दिन था, तुमने मुझे पत्र लिखकर बुलाया था, उस दिन मैं सुबह सात बजे चारबाग से बस पकड़ सका था इसलिए तुम्हारे बताये साढ़े नौ के टाईम पर पहुँच न सका, पूरे एक घण्टे लेट पहुंचा था। मैं, उस दिन पहली बार मैंने तुमको अपने ऊपर नाराज पाया था, सच उस दिन तुम रूठी हुई बहुत भली लगी थी।
उस दिन हम बहुत घूमे थे चिडि़या घर में, और हाँ वो जगह जहाँ रात्रिचर प्राणी रखे जाते है उस जगह जब तुम मुझे ले गई थी तो अँधेरा देखते ही मैंने शरारत से तुम्हें अपने गले लगा लिया था और तुमने भी मेरे चेहरे पर अपने होठों के कितने निशान छोड़ दिये थे।
उसी दिन हमने गुरूदेव पैलेस में तीन से छः का परदेस फिल्म का शो देखा था और फिर हर बार की तरह हम जुदा हो गये थे, तुम अपने घर और मैं लखनऊ।
तब शायद मैं जानता नहीं था कि ये जुदाई, ये बिछड़ना ये सब नियति ने मेरे भाग्य में लिख ही रखा है, हाँ उस समय इसका बिल्कुल एहसास न हुआ था।
न जाने क्यों कभी-कभी मुझे तुम्हारी छोटी बहन श्वेता की आँखों में अजीब सी हलचल दिखाई देती, मुझे ऐसा लगता जैसे वो मुझे ननीदी नजरों से देख रही है, मैं इसे वहम समझकर झटक देता या कभी सोचता उसने मुझे तुम्हारे साथ आंलिगन बद्ध देख लिया होगा। श्वेता की उम्र पन्द्रह साल होती तुमसे दो वर्ष छोटी पर शरीर में वो तुमसे उन्नीस कतई न थी।
उस दिन जब तुमको तुम्हारी फ्रेन्ड रेखा के साथ बाहर जाना पड़ गया तो मैं भी थका होने के कारण तुम्हारे रूम पर सो गया था, फरवरी की हल्की ठण्ड ने मुझे कम्बल ओढ़ने पर विवश कर दिया था।
अचानक मुझे लगा कि किसी ने अपने होठों को मेरे होठों पर रख दिया है, मुझे लगा कि मैं स्वपन लोक में हूँ, पर मेरी तन्हाई टूट गई थी मैंने आँखे खोल के देखा तो मुझे सिर्फ तुम्हारे बाल दिखाई पड़े मुझे लगा तुम मार्केट से वापस आ गई हो और मैंने तुम्हें कम्बल के अन्दर खींच लिया था, मैंने दुबारा आंखें खोलने की कोशिश न की थी।
और जब आँखें खुली तो खुली की खुली रह गई वो तुम न थी वो तो श्वेता थी। मेरे आँख खुलने का कारण उसकी चीख थी जो उसके प्रथम मिलन की पीड़ा के कारण निकल गई थी पर आँख खुलने के बाद भी मैं रूक न सका था आखिर था तो पुरूष ही, मंजिल पर पहुंच कर ही मेरे कदम रूके थे, और उसने भी कदम से कदम मिला कर हाँफती सांसों के साथ मेरा साथ दिया था।
वक्त गुजर चुका था, मैं ग्लानि से डूबा जा रहा था पर श्वेता के चेहरे पर असीम तृप्ति के भाव थे।
तुम जब मार्केट से आई थी कितनी खुश थी मेरे लिए हाफ स्वेटर लाई थी तुम्हारी जिद पर मुझे पहनना पड़ा था, आज न जाने क्यों मैं तुमसे आँखें चुरा रहा था।
मेरी इंजीनियरिंग की पढ़ाई खत्म हो चुकी थी, नौकरी के लिए मैं तुम्हारे शहर कानपुर आ गया था, मुझे रूम भी तो तुमने ही दिलवाया था। जब तुम श्वेता के साथ मुझसे मिलने आती तो मैं आत्मग्लानी से दब जाता, मैं प्रेम तो सिर्फ तुमसे करता था, पर श्वेता मुझ पर तुम्हारा इतना ही या यूँ कहें तुमसे ज्यादा मुझ पर अपना हक समझती थी।
न जाने कब श्वेता ने मेरे और तुम्हारे आंलिगन वाले फोटो निकाल लिये थे और उनके बूते वो मेरी शय्या सहचरी बनने लगी थी। इतनी कम उम्र में इतने दाँव मैं सोच कर दंग रह जाता, पुरूष होकर भी मैं विवश था और नारी होकर भी वो………..। कभी मन करता कि तुम्हें सब बता दूँ पर तुम्हारा ख्याल ही मुझे रोक लेता। बहन ही बहन की अप्रत्यक्ष दुश्मन बन चुकी थी। हाँ एक बात सच थी वो अभिसार में तुमसे कई ज्यादा पारंगत थी पर तुम इन सब बातों से अनजान थी।
वक्त खिसक रहा था तुम कानपुर विद्यामंदिर से निकल कर पी0पी0एन0 पहुंच गई। श्वेता को मना लिया था या शायद उसने अपनी गलती मान ली थी उसने मेरे और तुम्हारे बीच से हटने का फैसला कर लिया था, उस दिन वो मेरे काँधे पर सर रखकर सिसकते हुए बोली थी- तुम सच कहते हो राजीव तुम सिर्फ अस्मिता को प्यार करते हो मुझे नहीं, मुझे माफ कर दो राजीव आज से हम सिर्फ फ्रेन्ड बन कर रहेंगे, पर तुम इस बारे में अस्मिता को कुछ न बताना, फिर वो भाग कर गई और वो सारे फोटो निकाल लाई थी, गैस को लाइटर से जलाते हुए उसने सारे फोटो उस पर रख दिये थे जो उसने मेरे और तुम्हारे आलिंगनबद्ध खींचे थे।
मैंने देखा वो रो रही थी मैंने आगे बढ़कर उसके आँसू पोछ दिये थे और उसके होठों को अपने होठों के गिरफ्त में ले लिया था, उसने मुझे परे ढ़केलने की कोशिश की थी, पर मैं अपने बाजुओं के घेरे को सख्त करते हुए बोला था बस श्वेता आज अन्तिम बार, मेरे इतना कहते ही उसने अपने फूल से शरीर को मेरे बाहों में ढीला छोड़ दिया था।
आज मैंने पहली बार पहल की थी और शायद आज ही उसे पूर्ण तृप्ति मिली थी, न जाने कितनी देर वो मेरे पांवों को चूम कर अपनी गलती की क्षमा माँगती रही थी।
बिगड़ी हुई लड़की इतनी जल्दी इस कदर सुधर सकती है मुझे अचरज होता था। श्वेता जैसे बिगड़ी थी वैसे ही सुधर गई थी, हाँ उस दिन के बाद वो आज तक मुझसे एक अच्छे फ्रेन्ड की तरह ही पेश आई थी।
तुम्हारे पापा घर पर थे, आज जब मैं तुमसे मिलने आया था, खाना खा रहे थे, मुझे आफर किया, तो मैंने सादगी से मना कर दिया था क्योंकि मैं नानवेज नहीं खाता, तुम्हारे पापा ने दुबारा नहीं पूछा था। तुमने नीला सूट पहन रखा था, बाल कंधे पर बिखरे हुए थे तुम आज कुछ ज्यादा ही सुंदर लग रही थी। आज तुम मुझसे कुछ न बोली थी और न ही मैं। तुम्हारे पापा खाना खा कर बाहर चले गये, श्वेता से ये बोल कर कि वो मेरे लिए चाय बना दे, वो एक नजर मुझ पे डाल कर किचन की तरफ चली गई थी, मैंने देखा उसने जाते हुए एक नजर तुम पर भी डाली थी। हम कमरे में अकेले रह गये थे, मैंने तुम्हारे नर्म हाथ को अपने हाथ में ले लिया था, तुमने विरोध न किया था, न जाने तुम्हें क्या हुआ था तुमने अपना सर मेरे कंधे पर रख दिया था और एक हाथ से मेरे सर को सहलाते हुये बोली थी ये अस्मिता सिर्फ तुम्हारी है राजीव इसे कभी भी अपने से दूर मत करना बदले में मैंने तुम्हारा हाथ जोर से दबा दिया था जो अब तक मेरे हाथों में था।
किसी के आने की आहट हुई थी, मैंने तुम्हें हटाना चाहा था पर तुमने यह कहते हुए कि श्वेता होगी नहीं हटी थी, तुम्हारा चेहरा मेरे कंधे पर था इसलिए तुम देख न सकी थी पर मैंने देखा था वो श्वेता नहीं तुम्हारे पापा थे, आज चोरी पकड़ ली गई थी, पर वह कुछ बोले न थे बस तुरन्त मुड़ कर चले गये थे। उनके जाने के बाद मैंने तुम्हारा गाल सहलाते हुये बताया था तो तुमने भींच कर मुझे गले लगा लिया था और सिसकते हुये बोली थी कुछ भी हो राजीव मैं तुम्हारे बिना रहने को सोच भी नहीं सकती-पापा चाहे कुछ भी बोले पर प्लीज मेरे देवता तुम मुझे अपने चरणों से हरगिज दूर न करना। अब तक मैंने सिर्फ कथा कहानियों में पढ़ा था कि प्रेम कुछ भी नहीं देखता सिर्फ अपने प्रियतम पर मर मिटना जानता है, आज इसे प्रत्यक्ष देख रहा था।
श्वेता अभी तक चाय लेकर न आई थी या शायद उसने बनाई ही न थी, तुम चाय लेने के लिये गई थी और मैं प्रियतम पर मर मिटने वाली जाती हुई अपनी प्रियतमा को देखता रहा था।
तुम्हारे पापा जिनसे मैं मन ही मन डर गया था मैं प्रतीक्षा कर रहा कि वो कब मुझसे तुम्हारे बारे में बात करते हैं, मैं उनकी दबंगई प्रवृत्ति से वाकिफ था ऊपर से वो गाँव के प्रधान भी थे।
तुम्हारे पापा ने तो अब तक कोई बात न की थी, पर हमारी गर्मियों की छुट्टियाँ गाँव में मजे से गुजर रही थी। उस दिन हम गाँव के बाहर शंकर भगवान के मंदिर पर मिले थे तुम्हारे साथ तुम्हारी फ्रेन्ड निधि थी, तुम मुझसे पहले मंदिर पहुँच गई थी, तुमने मौली मंदिर के छज्जे के छल्ले से बाँध दी थी। मैं जब पहँुचा था तो तुम और निधि मंदिर के टाईल्स से बने हुए फर्श पर आमने-सामने बैठी थी। मैंने तुमसे पूछा था प्रसाद चढ़ाया तो तुमने कहा था, अपने देवता के दर्शन बिना प्रसाद कैसे चढ़ा सकती हूँ, बदले में बस मैं मुस्करा दिया था।
हम न जाने कितनी देर मंदिर परिसर में टहल रहे थे, तुम कितनी खुश थी मंदिर के सरोवर में मछलियों को लईया खिलाते हुए। सरोवर में खिले कमल के फूलों को तुम प्यार से निहारती रहीं थी। तुम जानती थी मुझे तैरना नहीं आता इसलिए तुमने उन्हें लेने की बात नहीं कही थी।
आज जब मैंने तुम्हें फोन किया तो तुम उदास लग रही थी, मैंने पूछा तो बताया था कि पापा ने एल नेट कम्प्यूटर्स में एडमिशन के लिए होने वाले एग्जाम में बैठने से मना कर दिया है। मैंने तुमसे इस बारे में ज्यादा बात न की थी, उस दिन के प्रकरण से मैं पहले से शंकित था, तुम्हारे पापा अगर मुझसे बात नहीं करते हैं तो जरूर तुम पर कुछ न कुछ प्रतिबन्ध लगायेंगे, शायद मैं इसी का परिणाम था, मैंने इधर-उधर की बात करके फोन रख दिया था।
कुछ देर बेचैनी से मैं टहलता रहा था न जाने क्यों मैं अपने आपको दोषी समझने लगा था, शायद मेरे कारण ही तुम्हारे पापा ने तुम पर प्रतिबन्ध लगाया था। न जाने मुझे क्या सूझी थी मैंने तुम्हारे पापा से बात करने को मन बना लिया था। मैंने टेलीफोन का रिसीवर उठा लिया था डायल किया तो उधर तुम भी हाय हैलो करके मैंने तुम्हारे पापा को फोन देने को बोला था तुमने भी बिना कुछ पूछे पापा को बुला के रिसीवर उनके हाथ में पकड़ा दिया था।
हैलो कहते हुये मेरे होठों ने मेरा साथ नहीं दिया था, तुम तो शायद पापा के हाथ में रिसीवर देकर कमरे से चली गई थी। हाँ बोलो राजीव-तुम्हारे पापा ने पूछा था, मैंने कोई भूमिका नहीं बनाई थी, सीधे ही बोला था अंकल जी आप अस्मिता को एग्जाम देने के लिए भेज दीजिए, उन्होंने कहा था ठीक है और इतना कहते ही रिसीवर रख दिया था।
शाम को तुम्हारा फोन आया था, तुम कानपुर जा रही थी एग्जाम के लिए| तुमने कहा था मैं भी आऊँ, सो अगले दिन मैं भी आ गया था। मेरे कहने पर तुम्हारे पापा ने तुम्हें एग्जाम के लिये भेजा था। इसका अर्थ तुमने भी लगाया था। एग्जाम देने के बाद तुम बाजार से सिन्दूर लेकर आ गई थी, तुम्हारे कहने पर मैंने तुम्हारी मांग सिन्दूर से सजा दी थी, सच वो रात आज तक मेरे मन और जेहन में महकती रहती है, सच सुहागरात का अर्थ उस रात को स्पष्ट हो गया था, तुम तमाम रात कुछ न कुछ करती रही थी कभी मेरे पाँव दबाती कभी सर सहलाती कभी सीने के बालों को अपने होठों से दुलार करती, सच तुम्हारा वो रूप भूलता ही नहीं, चेहरे पर चुम्बन करती अस्मिता, आलिंगनबद्ध अस्मिता, मेरे सीने में अपने यौवन शिखरों को छुपाती अस्मिता, मेरे पैर पर सर रखती अस्मिता, और संभोग के लिए समर्पित अस्मिता।
उस रात तुम और मैं सिर्फ मर्द और औरत थे। यकीनन वो रात तुमने अपने यौवन की हरारत, अपने मन की शीतलता अपने अधरों की नर्मी और अपनी सांसों की मादकता से सम्पूर्ण एवं सार्थक कर दी थी। इससे पहले भी मैंने तुम्हें कई बार पाया था पर इस रात को तुम मुझे मेरी पत्नी की तरह समर्पित थी।
हमारे प्रेम को तुम्हारे पापा की मौन स्वीकृति मिल चुकी थी और तुमने वापस एक दिन वही वाक्य दोहराया था जो तुम अक्सर बोलती थी।
-राजीव, मुझे ऐसा लगा मैं आसमान में उड़ रही हूं पंख लगाकर-
मैं सहलाने लगा था तुम्हारे कांधे और पीठ तुम इठलाते हुए बोली थी राजीव क्या कर रहे हो-मैंने कहा था-पंख ढूंढ रहा हूं मेरी बात सुनते ही तुम पलट कर मेरे गले से लग गई थी। सच बड़ी ही कशिश थी अस्मिता, तुम्हारे यौवन में मैंने ही एक वर हार चुका तुम्हारे ऊपर।
………….हर बात तुम्हीं ने सिखाई, हर बात तुम्हीं ने बनाई, मेरे राजीव मैं बारह अगस्त को सुबह दस बजे मोती-झील के फस्र्ट गेट पर तुम्हारा इन्तजार करूंगी, मेरा देवता आना जरूर मैं इन्तजार करूंगी, अन्त में चरण स्पर्श।
आपकी
अस्मिता कटियार
हां यही पत्र मिला था मुझको तुम्हारा लखनऊ में न जाने कितनी खुशी होती थी अस्मिता जब मुझे ऐसे पत्र मिलते थे तुम्हारे, मैं तुम्हारे हर बुलावे पर, हर काम छोड़कर भाग कर तुम्हारे पास कानपुर आ जाता था।
एक दिन जब हम चिडि़या घर में मिले तो तुमने अपने दुप्पटे को अगुंली पर लपेटते हुए बोली जानते हो राजीव अपने लड़के का हम नाम रखेंगे ‘निष्कर्ष’ मैंने तुम्हारे चेहरे को देखा तो दया से गुलाबी हो रहा था, मैंने कहा अस्मिता अगर लड़की हुई-तुम बोली अदिति-मैंने कहा था, सोचो अगर अपने दो लड़के, एक लड़की होती है तो-
तुम थोड़ा और ज्यादा शर्मा गई थी, शर्माते हुए बोली थी-निष्कर्ष, आदिती और उद्देश्य यही होंगे हमारे बच्चों के नाम।
सच अस्मिता तुम वास्तव में पँख लगाकर उड़ रही थी, वक्त कितना खुशवार था।
पर वो दिन-
हाँ वो दिन-
हाँ पहली बार तुम वायदा करके मिलने न आई थी। मैं जाने कितनी देर रावतपुर क्रासिंग पर इन्तजार करता रहा था, तुम न आई थी, मैं अपने काम पर चला गया था।
मैं भाग कर हास्पिटल पहुँचा था, तुम्हारे भाई, चाचा और ताऊँ सभी थे। तुम दिखाई नहीं दी थी, तुम्हारे पापा इमरजेन्सी वार्ड में एडमिट थे, सर पे काफी चोट थी, गले की नस काट कर वहाँ से कृतिम श्वांस दी जा रही थी। मैं देखकर बाहर निकला, डाक्टर से बात की उन्होंने काफी सीरियस बताया, गांव से काफी लोग आये थे, कोई एक्सीडेन्ट तो कोई अटैम्पट आफ मर्डर की बात कर रहा था।
तुम आई थी, पापा को देखकर बाहर निकली, कारीडोर में आकर बेहोश हो गई थी मैं चाह कर भी सहारा व संतावना न दे सका था।
जिंदगी-मौत का संघर्ष समाप्त हो गया था रात्रि में तुम्हारे पापा ने अंतिम श्वांस ली थी, विजयी मौत तुम्हारे पापा को लेकर अनन्त यात्रा पर निकल गई थी। तुम्हारे रिश्तेदार, पोस्टमार्टम और अन्य खर्चे से मुंह चुरा रहे थे, मैंने अपना फर्ज निभाया था।
तुम्हारे घर कई बार गया था, पर बाहर से वापस आ गया था, मैं सोचता था तुम सामने आओगी तो क्या बोलूंगा, पूरे दस दिन बाद मिले थे कानपुर में, शायद छब्बीस जनवरी थी।
हमारे बलिदान का फैसला हमारा था, तुम्हारे घर की बिगड़ी हालत, तुम्हारे छोटे भाई-बहनों का भविष्य, मेरे त्याग की पराकष्ठा न थी, वो प्रियतमा जिसकी कभी मांग सजाई थी मैंने उसे अन्यत्र विवाह की सहमति दे चुका था।
लग्न मंडप हां तुम्हारा ही तो था बस मेरी जगह किसी ओर ने ले ली थी तुम्हारे विवाह में मात्र दर्शक था यही तो है भाग्य चक्र, तुमने वरमाला पहना दी थी तुम्हारी बहन से स्टेज पर तुम्हें बधाई भेजी थी मैंने।
जयमाला कार्यक्रम के बाद तुम आ गई थी-बोली खाना खा कर जाना हां या न मैं कुछ बोल न सका था।
मेरा दोस्त बोला था राजीव सुना है शादी वाले दिन लोगों के पंख लग जाते हैं और वो आसमान में उड़ते हैं-
मैंने तुम्हारा चेहरा देखा था कुछ पढ़ न सका तुम बोली थी-हां पंख लग जाते हैं, पर मैं उड़ नहीं सकती-
क्यों अस्मिता? मैंने पूछा-
राजीव अधूरे पंख के साथ क्या कोई आज तक उड़ सका है।
–सुधीर मौर्य