सिन्धु से निकली धारा
जब गंगा में आके मिली
तो उसकी सतह पर
अस्कों की स्याही से
एक इबारत
तामीर थी
पड़ी थी मैंने ही वो इबारत
उस दिन
जब में आनंद ले रहा था
गंगा की
अठखेलियाँ खेलती
लहरों का.
माँ गंगा के
चरणों में सर नवा कर
लिख था
उस मजलूम ने
जो बंद अँधेरी कोठरी में
कैद है
मीरपुर मैथेलो में
कुछ यूँ था
उस ख़त का मज़मून...
है माँ
तुन तो दुःख हरने वाली है
पर देख
किन-किन ज़ुल्मो की
हदों से गुजरी है
मेरी ये देह.
जिसने देखे नहीं है
अब तलक
१८ बसंत.
में नहीं जान पति
अँधेरे-उजाले का फर्क
क्योंकि छाया है
घोर अँधेरा
इस बदबूदार
सीलन भरी कोठरी में.
जहा नोच जाता है
गोस्त मेरे बदन से
हर रत-हर दिन.
माँ
तुन तो जानती होगी
मेरे नुचे जिस्म से
टपकती लहू की बूंदों को
चाट कर
प्यास बुझाते हैं वो
जिनके चेहरे
इस कोठरी की कालिमा में
पिशाचों से दिखते हैं.
और जो हर बार बदल जाते हैं.
इस कोठरी के
एक कोने में
इकठ्ठा है
गौमाता के
भुने हुए टुकड़े
जो परोसे जाते हैं मुझे
पेट भरने के लिए
और जिन्हें माथे से लगा कर
में रख देती हु यहाँ.
माँ
मेरे जिस्म पे
इन पिशाचों ने
अधिकार कर लिया है
और बेचतें हैं उसे
मूल्य लेकर
तू तो जानती है
माँ!
मेरी आत्मा स्वतंत्र है
जी पर कोई
अधिकार नहीं कर सकता
और में अपनी आत्मा
तेरे चरणों की
पावन धारा में
समर्पित करती हूँ
क्योंकि मेरा जिस्म
इन पिशाचों ने
अपवित्र कर दिया है
माँ!
मेरी आत्मा को अपने
निर्मल जल में विलय हो जाने दे
मुझे अपनी गोद में
सो जाने दे
आपकी ही तो
बच्ची हूँ
में 'रिंकल कुमारी'
सुधीर मौर्या 'सुधीर'
गंज जलालाबाद, उन्नाव
२०९८६९
स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ!
ReplyDeleteजय हिंद!
aap ko bhi sir badhai ho...
DeleteRinkle Kumari We Miss U 2 we had not done nothing for U!!!!!!!!!!
ReplyDeletekafi achchha kam kar rahe hain. yahi nahin blog bhi kafi sundar hai. Badhai, shubhkamnaen.
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