Friday 28 November 2014

मसीहा --सुधीर मौर्य


देख लडकी
आंऊगां मै हाथी घोडे लेकर
तेरी महफिल मे
उतार दूंगा 
अपनी रूह पे रखे 
तेरे झूठ के बोझ को
बता दूंगा सरेशाम
मैने जलाये थे 
प्रेम के दिये
ताकि हँसती रहे 
तूं जीवन भर
तूने बुझा वो दिये
अपनी मुकम्मल हँसी के बाद
और टॉग दिया सूली पे
अपने ही मसीहा को
तझे मालुम तो होगा लडकी !
चलन है लौट कर 
मसीहा के आने का.
---
सुधीर मौर्य


Sunday 16 November 2014

प्रेम के रंग - सुधीर मौर्य


न जाने कितने दिन हुए
इन्द्रधनुष में नहीं खिलते हैं
पूरे रंग
तेरे सुर्ख पहिरन में
जो झिलमिलाते हैं
तेरे बदन के साथ
मैने ही इन्द्रधनुष से मांग कर
भरे हैं प्रिये ! वो रंग
तेरे लहंगे की हरी किनारी
मैने मांगी है धरती के उस पहाड़ से
जहाँ सजती हैं कतारे
सुआपंखी फूलो की
मेरे ही कहने पर आये हैं सितारे
तेरी चुनर में फूल सजाने को
देख निखारा है
तेरी चोली को
सप्तऋषियों की कुमारियों ने
बना दिया है मैने
सारे आकाश को मंडप
और वेदी में जगमगा रही है
सूरज की लौ

देख लड़की !
मैं हूँ वही लड़का
जिसे तूँ कभी
प्रेम करती थी।
--सुधीर मौर्य

Thursday 13 November 2014

गलती, भगवान और इंसान - सुधीर मौर्य

कर देता है वो,
हँस कर माफ़
उसकी सौ के बाद की भी गलतियां

आखिर वो
सादा दिल इंसान है
कोई भगवान नहीं।
--सुधीर मौर्य

Wednesday 12 November 2014

स्त्री की स्त्री दुश्मन- सुधीर मौर्य

सच कहें तो स्त्री विमर्श खोखलेपन से गुज़र रहा है। ऐसा खोखलापन जिसे खुद स्त्री ने निर्मित किया है। इस खोखलेपन में वो खुद सहर्ष रहने को तयार है कभी किस्मत, कभी समाज तो कभी पुरुष को दोष देकर।
स्त्रियों ने जिस तीव्रता से उच्च शिक्षा ग्रहण की उस तीव्रता से वो खुद को पुरुष के समान मानने की मानसिकता विकसित नहीं कर पाई। स्त्रियों ने काम करने और शिक्षा ग्रहण करने के लिए घर से बाहर अपने पैर निकाले पुरषों के कंधे से कन्धा मिलाकर काम किया, शिक्षा ग्रहण की। कई अवसरों पर वे पुरषो से इक्कीस साबित हुई। पर न जाने क्यों वे अब तक अपने ऊपर पुरषों का वर्चस्व स्वीकार करती रही हैं।
शिक्षा और जॉब करने के दौरान लड़कियों के कई अच्छे पुरुष मित्र (बॉय फ्रेंड नहीं) बन जाते रहे उनमे से कई तो उनके साथ उनके अच्छे बुरे वक्त में अच्छे मित्र की तरह खड़े रहे। जब भी जरुरत पड़ी वे पुरुष, लड़की के अच्छे सहायक साबित हुए। कई अवसरों पे तो पारिवारिक और अन्य सम्बन्धियों से भी अधिक।
न जाने क्यों लड़की भय में जीती है। ऐसा भय जिसे उसे ठोकर मारनी चाहिए। आखिर क्यों वो लड़की अपने उस सर्वाधिक सहायक मित्र को उससे नहीं मिलवा पाती जिससे उसकी शादी होने जा रही है। फिर ये शादी चाहे उसके घर वालो ने फिक्स की हो या खुद उसने। आखिर क्यों वो उस पुरुष का वर्चस्व स्वीकार करती है जिसकी वो पत्नी बनने वाली है। स्त्री का यही समर्पण उसे पुरुष के समक्ष कमज़ोर बनता है और पुरुष उस पर अपना अधिकार समझ लेता है।
स्त्री आखिर क्यों ख़म ठोककर अपने अच्छे मित्र का अपने होने वाले पति से परिचय नहीं करवाती। वह विवाह के पूर्व उस पुरुष को यह नहीं बताती की अच्छे मित्र बनाने के लिए लड़की भी स्वतंत्र है जैसे पुरुष बनाते रहते हैं।
किस बात का भय स्त्रियां अपने मन में पालती हैं
–पति के शक करने का।
–विवाह सम्बन्ध प्रभावित होने का।
–यदि उसका होने वाला पति उसके अच्छे मित्रों के होने पर शक करता है, उसे शारीरिक या मानसिक रूप से प्रताड़ित करता है तो इसका अर्थ है वह सामंतवादी पुरुष है और एक सभ्य शुशिक्षित लड़की से शादी करने के योग्य नहीं।
लडकिया जब तक शादी होने वाले पुरुष के समक्ष स्वयंम के लड़की होने की वजह से समर्पण करना नहीं छोड़, पुरुष अपने पति होने का अवैध अधिकार इस्तेमाल करता रहेगा। और लड़की उच्च शिक्षित होने के बाउजूद पारवारिक जीवन में पुरुष के मुकाबले दोयम दर्ज़े की रहेगी।
स्त्री को खुद ही विचार करना होगा क्या वह पुरुष उसका पति बनने के लायक है जो स्त्री अच्छे सहायक मित्र होने की वजह से कुंठित हो। स्त्रियों को बेहिचक अपनी आदते और अपने सम्बन्ध उस पुरुष के सामने उजागर करने चाहिए जिससे उसका विवाह होने वाला है। सब जानकर यदि पुरुष उस स्त्री से विवाह करता है सही सही अर्थों में तभी वो पुरुष विवाह करने के योग्य है।
स्त्री को खुद का दुश्मन बनना छोड़ना पड़ेगा और पुरुषों के सामने ख़म ठोक कर खड़ा होना पड़ेगा तभी स्त्री और पुरुष बराबर कहलायेंगे और इसके लिए अब बहादुरी दिखने की बारी सिर्फ स्त्री की है।
 –सुधीर मौर्य
sudheermaurya1979@rediffmail.com