Friday, 24 August 2012

मेरी आँखों के ही आगे तूं गैर हो गई थी...


























में गीत लिख रहा हूँ अपने सुनहरे कल के
लगते थे तुम गले जब मेरे सीने से मचल के

तुम्हे याद होगा मंज़र वो मोतीझील के किनारे
जहाँ तुमने हमको  दिए अपने शानो के सहारे

जहाँ प्यार के हुए वादे वो मंदिर का था ठिकाना
मेरा हाथ पकड के तुमने गाया प्यार का तराना

वो घर तयारों का था जहाँ घुमे साथ-साथ
अक्सर  हुई  जहाँ  पर  अपनी  मुलाकात

हर रोज़ अपने हाथो ख़त प्यार के वो लिखना
वो तमाम रात मुझसे फोन  पे बातें करना

कैसे भुलावगे तुम  मंज़र वो प्यारे-प्यारे
अपनी वफ़ा के बने जब गवाह चाँद तारें

फिर आई सनम वो घड़ियाँ लेकर जुदाई काली
जिस  पर  बना नशेमन वो टूट गई डाली

तुझे अपना बनाने में मुझसे देर हो गई थी
मेरी आँखों के ही आगे  तूं गैर हो गई थी

मेरे दिल के गोशे में केवल है घर तुम्हारा 
तूं गैर है तो क्या  है, है  साहिबा  हमारा

तेरे लिए है यारा ये नवा- ऐ - आशिकाना
तुझको करेगी प्यार मेरी रूह-ऐ-जविदाना














नज़्म संग्रह 'हो न हो' से...
सुधीर मौर्य 'सुधीर' 

3 comments:

  1. Shanti Garg has left a new comment on your post "तुझे अपना बनाने में मुझसे देर हो गई थी...":

    very good thoughts.....
    मेरे ब्लॉग

    जीवन विचार पर आपका हार्दिक स्वागत है।

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    --
    इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (26-08-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
    सूचनार्थ!

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