Sunday, 1 June 2014

बलात्कार प्रदेश - सुधीर मौर्य

बदायूँ 
सिर्फ तूँ ही नहीं 
सारे 
उत्तर प्रदेश पे 
लग रहे हैं 
बलात्कार के दंश 
बैठे हैं 
प्रदेश के स्वामी 
सैफई महोत्सव के 
उजाले में 
सारे प्रदेश को 
अंधकार में 
डुबोकर 
नीरो की तरह 
आग के उजालो में 
बांसुरी  
बजाते  हुए। 

--सुधीर मौर्य 

आँखे - सुधीर मौर्य

न जाने क्यों 


मै जब भी 


तुम पर कविता लिखता हूँ


मेरे ख्यालो में 


तुम्हारी सहेली की आँखे 


चमक जाती है

--सुधीर मौर्य

Sunday, 25 May 2014

अधूरे फ़साने की मुक़म्मल नज़्म - सुधीर मौर्य


एक  अफ़साना 
जो मुक़म्मल न हो सका। 
ओ रात की चांदनी 
तुम कहती हो मै नज़्म लिखुँ उस पर। 
ओ सुबह की धुप 
क्या नाचना चाहती हो तुम 
 उस अधूरे फ़साने की 
मुक़म्मल नज़्म पर।   

--सुधीर मौर्य 

Tuesday, 20 May 2014

माई लास्ट अफेयर - Sudheer Maurya

उपन्यास की नायिका में मुझे फरनाज का अक्स दिखाई देता और मैं उपन्यास में लिखे वर्णन के आधार पर फरनाज को अपनी प्रेमिका मान अपने ख्वाबों में रात बिस्तर पर उसकी बजती चूड़ियों की आवाज सुता रहता। मैंने ख्वाबों में ख्यालों में अब तक हर रात उसके सय्याल गुलाबी होठों को चूमा था। उसके बदन की उभारों और घाटियों की सैर की थी।
 
ये इन उपन्यासों का और टीवी पर देखी गई फिल्मों का ही असर रहा होगा जो उस दिन मैंने उस मन्दिर के आगे बेबाक उसके हाथ को पकड़कर उसे `आई लव यू' बोल दिया।
मेरी बात सुनकर उसने अपनी बोझल पलकें झुका लीं और हया से बोली कुणाल मैं भी तुमसे मुहब्बत करती हूँ। उसका हाथ अब तक मेरे हाथ में था।
उसके इन शब्दों ने मुझे दुनिया भर की खुशी दे डाली। उस दिन हम तमाम दिन साथ रहे प्यार की बातों के साथ। सुम्बुल भी साथ भी पर वो शायद हमारे इकरारे मुहब्बत को समझ गई थी इसलिये उसके कदम हमारे कदमों से तमाम दिन थोड़ा पीछे ही रहे।
फिर शाम हम अलग हुए, समर विकेशन के बाद मिलने के वादे के साथ हाँ अगर आज की तरह कहीं अचानक मुलाकाते रोज होती रहे।
``ये मेरे पहले अफेयर की शुरुआत थी।''

Wednesday, 2 April 2014

बेसबब तूं आसरा देखे - सुधीर मौर्य


मै पथ्थर हो चूका हूँ, बेसबब तूं आसरा देखे 
तेरी हसरत अधूरी है मुझे तूं टूटता देखे 

किसी की ज़िन्दगी उनसे अधिक खुशहाल कैसे है 
बहुत से लोग हमने इसलिए भी गमजदा देखे 

मुझे साहिल मिला तो वो बहुत मायूस रहता है 
वही जिस सख्स की ख्वाहिस थी मुझे डूबता देखे 

Friday, 28 March 2014

जल्दी करो (लघुकथा) - सुधीर मौर्य

जल्दबाजी में इकरा बचते-बचाते गैर मजहब इलाके में गयी। धार्मिक नारे लगते लोग उसकी तरफ बढे,  इकरा सूखे पत्ते की तरह कांपने लगी। किसी तरह आरती उसे उन्मादियों से बचा कर अपने घर लायी और कुछ दिन अपने मजहब की तरह कपडे पहनने को कहा।
दुसरे मजहब के लोग अल्लाह हो अकबर के नारे लगाते  मोहल्ले में बदला लेने की गरज से घुसे, जो मर्द सामने काट डाला और लड़कियों की अस्मत लूटने लगे।
इकरा भी उनके हत्थे चढ़ी, बेचारी रो-रो कर अल्लाह की दुहाई देती रही कि वो उनके मजहब की है। पर वो ये कहते हुए, साली बचने के लिए बहाना करती है, उस पर टूट पड़े।
इकरा का भाई लूट-पाट करता उसी घर में घुसा और बहन को अपने ही मजहबियों से लूटते देख अवाक रह गया।

भाई को देख कर कराहती हुई इकरा के होठो पर एक फीकी मुस्कान उभरी। फिर वो अपने ऊपर लेटे बलात्कारी से बोली ''जल्दी  करो'' आपका एक साथी और गया है।                  -----सुधीर मौर्य 

Friday, 21 March 2014

सबसे खुबसूरत पल - सुधीर मौर्य

! प्रियतमे 
हमारी जिन्दगी का 
सब से खूबसूरत पल 
हमारे इंतजार में
बेकरार है वहां 
जहाँ पे 
फलक और जमी  
आलिंगनबद्ध 
होते हैं।

 फ़लक़ - जमीं का 
मिलन 
कोई मारिच्का नहीं है 
वह तो 
शास्वत सत्य है 
जिन्हें हम 
दूर की नज़र से 
देख सकते हैं
किन्तु नजदीक से नहीं।

क्यों
क्योंकि यह मिलन 
अदेहिक है,
रूहों का है।

अरे ! प्रियतमे 
सही देहिक 
हम आत्माओ से मिले है 
जिसे 
दुनिया देख नहीं सकती।