Friday, 28 December 2012

परिवर्तन की नायिकाए...



सुधीर मौर्या 'सुधीर'
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18 दिसम्बर 2011 को मिस्र की तहरीर चोक पर पर्दर्शन के दौरान सैनिको के हाथो मारपीट और खीचतान में सड़क पर एक लड़की नीली ब्रा में तस्वीरो में कैद हो गयी. उसके बाद काहिरा में आम जनता का जो गुस्सा उबला उसने ये साफ़ कर दिया की कोई भी मिस्र में लड़कियों की आबरू से नहीं खेल सकता. ठीक वही दिल्ली में हुआ जब एक चलती बस में २३ साल की लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ तब दिल्ली की जनता ने सडको पर उतर के दिखा दिया कि कोई भी अब लक्ष्मन रेखा को पर नहीं कर सकता. 

पिछले कुछ सालो में ये रही हे परिवर्त की नायिकाए...

'निदा आगा सुल्तानी'-   इरान में चुनावों के बाद सत्ता विरोधी पर्दर्शन के दौरान जून २००९ में गोली का शिकार हुई २६ साला निदा की तस्वीरों को सत्ता विरोधी लहर का चेहरा माना गया...ये बात और हे की इसी नाम की एक लड़की को पुलिसे और सेना से तंग आकर अपने देश को छोड़ना पड़ा.

'मलाला युसुफजई' - स्वात घटी में १४ साला इस लडकीको तालिबान के पढाई विरोधी फरमान का विरोध करने पर सर में गोली मार दी गई, पकिस्तान ही नहीं वरन सरे संसार में उसके समर्थन में लोग उठकर खड़े हो 
गए.

 'दामिनी'-क्या सचमुच जिन्दगी हार गई दामिनी....नहीं कतई नहीं...वो तो ऐसी हिम्मत वाली लड़की है जो हार ही नहीं सकती..जिसने ६-६ दरिंदो का मुकाबला किया हुआ दिल्ली की भागती सडको पर वो हार नहीं सकती. हार तो दिल्ली की सड़के गई हैं..हार तो दिल्ली गई है...हार तो मानवता गई है...और यकीन करो ये हार वो विजय हार लेकर आयगी जो फिर से नारी अस्मिता को सम्मान दिलाय्गा...दामिनी ने जो लक्ष्मन- रेखा अपनी शहादत से खिंची है आव आज ये वचन दामिनी को हम सब दे..ये लक्ष्मन-रेखा अब कभी भी हम टूटने न देंगे..अब कोई darinda किसी लड़की की इज्जत से खेल न पायेगा... 

Sudheer Maurya 'sudheer'


Thursday, 20 December 2012

ओ ! हिन्द की बेटी दामिनी


सलाम करता हूँ 
में तेरी हिम्मत को
ओ! हिन्द की बेटी
'दामिनी'
तुझे लड़ना है
मौत से 
और देना है उसे 
शिकस्त
उठ 
और बिजली की तरह 
चमक कर
सार्थक कर दे 
अपना नाम 
और लिख दे 
उन दरिंदो के
खून से
आसमान के
केनवास पर 
तूँ अबला नहीं  
जो दम तोड़ दे
घबरा के जहाँ के
 सितम से
तूँ तो वो सबला है
जो मिटा देती है
जुर्म करने वालो 
का नामोनिशान...

Sudheer Maurya 'Sudheer'
sudheermaurya1979@rediffmail.com

Tuesday, 18 December 2012

फिल्म शूटिंग




शाम का हल्का धुंधलका फ़ैल रहा था. रस्ते से जा रही लड़की को मनचलों ने चलती गाडी को स्लो करके खींच लिया.मुह पर टेप चिपकाने के बाद सब ने चलती गाडी में लड़की के साथ बारी बारी बलात्कार किया.

सुनसान रास्ते पर गंग रैप करने के बाद  मनचलों ने गाडी के स्लाइडिंग दूर खोल के लड़की को सड़क पर फ़ेंक दिया.

पीछे से रही कार में बैठी एक सात साल की लड़की फेंकी जा रही लड़की की तरफ ललचाई नजरो से देखती हुई, कार ड्राइव कर रहे अपने पापा से बोली - पापा प्लीज स्लो चलिए फिल्म शूटिंग चल रही है , अब हीरो आएगा.

सड़क पर गैंग रपे से पीड़ित लड़की चलती गाडी से फेंके जाने से जिन्दगी और मौत के बीच झूल रही थी.और सात साल की लड़की के पापा को हीरो बनने की कतई इच्छा नहीं थी.

सुधीर मौर्या 'सुधीर'
गंज जलालाबाद, उन्नाव
२०९८६९
9582844580 


Friday, 7 December 2012

जबरन धर्म परिवर्तन और रिंकल कुमारी..

 
 
Sudheer Maurya 'Sudheer'
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पिछले 8 महीनो में रिंकल कुमारी के जबरन धर्म परिवर्तन की खबरे पाकिस्तान विशेष रूप से सिंध के मीडिया में लगातार आती रही हे पर पाकिस्तान में हो रहे जबरन धर्म परिवर्तन पर भारत का मीडिया और राजनेतिक लोग बिलकुल उदासीन रहे हैं। कारण यदि सरहद पार का है तो में यही कहूँगा सरदे बाँट लेने से इंसानों को लगने वाली चोट की तासीर नहीं बदल जात।
...

अभी कुछ दिन पहले पंजाब के एक मंत्री ने लाहौर से अपनी बहन के गुम हो जाने का विरोध पकिस्तान में दर्ज कराया। यदि वो अपनी अप्रवासी बहन (शायद कनाडा में रहती हे) के बारे में बात कर सकते हैं तो रिंकल के बारे में क्यों नहीं। शायद इसलिए की वो उनकी रिश्तेदार नहीं है।

आइये जानते हैं ये रिंकल कुमारी है कोन ?

पाकिस्तान के सिंध प्रान्त के मीरपुर मेठेलो की रिंकल कुमारी का 24 फ़रवरी 2012 को उसके घर से अपहरण कर लिया गया। ठीक उसी दिन उसे जबरन इस्लाम कबूल करवाया गया और दिन ढलते-ढलते उसे जबरन एक मुस्लिम लड़के की बीवी बना दिया गया। रिंकल अपने माँ-बाप के पास जाना चाहती थी। मामला सुप्रीम कोर्ट में गया। सुनवाई के दोरान रिंकल ने रो-रो के माँ के साथ रहने की गुहार लगे। पर वकील के ये कहने पर लड़की ने कलमा पद लिया है उसे नारी निकेतन भेज दिया गया। रिंकल के विरोध करने पर पुलिस उसे घसीटते हुए ले गई।

रिंकल ने बख्तरबंद गाडी में चदते हुए अपने वकील अमरलाल से दर्द बरी आवाज़ में कहा - आप लोग मुझे बचा नहीं पाए , अब में क्या करू या तो अपने को कुर्बान कर दू या अपने घर वालो को कुर्बान कर दू। रिंकल का ये बयान काफी मायने रखता है।

नारी निकेतन में रिंकल से मिलने गई हिन्दू काउन्सिल की मंगला शर्मा को रिंकल ने उस पर हो तहे आत्याचार के बारे में बताया। जिससे रिंकल के दर्द और मज़बूरी का अंदाजा लगाया जा सकता है। रिंकल ने मंगला शर्मा से कहा उसे शायद पाकिस्तान में न्याय नहीं मिलेगा। रिंकल का ये अंदेशा में सच साबित हुआ।

आइये देखते हैं किस तरह रिंकल के मामले में न्याय की देवी सोती रही।

1: 24 फ़रवरी 2012 को रिंकल का अपहरण उसके घर से नवेद शाह और उसके गन मेन ने किया।

2: उसे जबरन बरचुन्दी शरीफ ले जाया गया जहा ppa MNA मिया अब्दुल हक (मिया मिट्टू ने उसे जबरन इस्लाम काबुल करवाया।

3: 25 फ़रवरी 2012 को रिंकल के रिश्त्व्दारो ने केश दर्ज किया।

4: कोर्ट में रिंकल ने कहा उसे बुरी तरह से मारा पीटा गया और इस्लाम काबुल न करने पर उसके परिवार को जान से मरने की धमकी दी गई।

5: रिंकल के इस बयां के बाद भी की वो अपने माँ-बाप के जाना चाहती है, जज हसन अली ने MNA मिया मिट्ठो के दबाव में सुनवाई अगली तारिक पर मुल्तवी कर दी।

6: 27 फ़रवरी 2012 तक पीडिता रिंकल कुमारी को पुलिस कस्टडी में रखा गया जहा उसके साथ सामूहिक बलात्कार हुआ। 27 फ़रवरी को रिंकल को मिया मिट्ठू के गन मेन की कस्दी में कोर्ट लाया गया। किसी भी हिन्दू को मिया मिट्ठू के गन मेनो ने अन्दर नहीं जाने दिया। जज सामी-उल- कुरैशी ने रिंकल के बयां की परवाह न करते हुए फैसला नवेद शाह के हक में सुनाया। उस वक़्त कोर्ट में रिंकल का कोई भी रिश्तेदार मौजूद नहीं था।

7: आल हिन्दू काउन्सिल की अर्जी पर 12 मार्च 2012 सिंध हाई कोर्ट ने सुनवाई करते हुए रिंकल को दारुल-अमन भेज दिया।

8: 26 मार्च 2012 को रिंकल कुमारी ने सुप्रीम कोर्ट में चीफ जस्टिस इफ्तिकार चौधरी के सामने ब्यान दिया उसे दारुल-अमन न भेजा जाये। रिंकल ने कहा इसके बदले वो मरना पसंद करेगी। रिंकल ने कहा आप दारुल-अमन में एक रात गुजरने की कल्पना भी नहीं कर सकते। पर जज ने उसे वापस कराची शेल्टर हॉउस में भेज दिया।

9: 26 मार्च से 18 अप्रैल 2012 तक दारुल-अमन में रिंकल पर भयंकर आत्याचार हुए। उसके साथ कई बार रैप किया गया।

10: 18 अप्रैल 2012 को जज ने रिंकल की बात को अनसुना करते हुए उसे जबरन नवेद शाह के साथ भेज दिया।

तब से लेकर अब तक रिंकल कुमारी मिया मिट्ठू की प्राईवेट जेल में केद हे। और निरंतर यातना को बोग रही है।

धर्म परिवर्तन एक अलग मुद्दा है। पर क्या इक्कीसवी सदी में किसी इन्सान को इस तरह गुलाम / दास बनाना जायज है। हाँ रिंकल मिया मिट्ठू की हवेली में SLAVE है एक SEX SLAVE .

क्या हमारा दायित्वा कुछ नहीं। क्या हम अब भी मध्य युग में जी रहे हैं। ये एक यक्ष सवाल है जो रिंकल के केस ने उठाया है।

सुधीर मौर्य 'सुधीर'

अभियंता और स्वतंत्र लेखन

ग्राम और पोस्ट - गंज जलालाबाद

जनपद- उन्नाव , 209869

sudheermaurya1979@rediffmail.com

Sunday, 11 November 2012

कही दीप जले कहीं दिल...



सुधीर मौर्य 'सुधीर'

हाँ दिवाली तो आ गई चारो तरफ खुशियाँ, दीपमालाएं पटाखों के शोर. हर कोई उल्लासित नज़र आ रहा है, हो भी क्यों नए पर्व है ही इस के लिए. पर इन सब खुशियोंओ को मानाने का हक किसी से छीन लिया गया है क्योंकि वो मज्बूर है, गरीब है, एक लड़की है और इस से भी कहीं ज्यादा शायद वो वहां पैदा हुई जहाँ अलाप्संख्य्खों की  आवाज़ सुनी नहीं जाती. हाँ में बात कर रहा हूँ रिंकल की, उस मजलूम की जिस से उसकी खुशिया सरेआम छीन ली गई. और उसे भेज दिया गया एक इसे कैदखाने में जहाँ से उसकी रिहाई अब तक न हो सकी. रिंकल मजबूर हे मियां मित्ठो की जेल में वो तमाम यातनाये भोगने केलिए जिनके बारे में सिर्फ सुन कर ही हमें पसीना आ जाता है, दिल दहल जाता है. क्या उसके लिए हमारा कोई उत्तर्दयित्वा नहीं,क्या हम उसके बारे में आवाज़ भी नहीं उठा सकते. क्या हमारी दिवाली तब सार्थक है जब की एक मजलूम को जबरन कैद करके उसे शारीरिक और मानसिक यातनाये लगातार दी जा रही हैं.  इन यात्नायो में किसी लड़की के लिए सबसे बुरी यातना sexual एब्यूज भी शामिल है.

में आप सब से आवाहन करता हु आओ हम सब मिलकर आवाज़ बुलंद करे इस गरीब और मजबूर लड़की के लिए.मैंने सुना हे की कलम में बहुत ताक़त होती है. तो फिर आओ सब मिल कर एक एसा आन्दोलन खड़ा करे जिसके तूफ़ान से मीरपुर मेठेलो की उस हवेली की दीवारे भरभरा के गिर पड़े और हम उस मजलूम रिंकल कुमारी को आज़ाद होते हुए देख सके.      

Thursday, 18 October 2012

हुकुम उदूली




राजा बनते ही उसने फरमान जारी कर दिया जो जिस के घर में कीमती माल ओ असबाब है सब राजा के खजाने में जमा करवा दे. प्रजा को कीमती सामान रखने का भी हक नहीं है, उन्हें मिटटी के बर्तन तांत के कपडे में गुजरा करना चाहिय. क्योंकि सब कीमती सामान राजा और उसके बाद उसके दरबारियों का ही हक है.

प्रजा को घर पर भी फलदार पेड़ लगाने की मनाही थी. हाँ वो जंगली बेर,  शहतूत और मकुइया के पेड़ घर पर लगा सकते थे.

आज दोपहर को राजा की पुलिस मैकू को उसके घर से पकड़ के ले गई, राजा के सामने पेश करके जुर्म सुनाया, इसके घर में रेशम का धागा पाया गया. राजा चुंक पड़ा इतना बड़ा जुर्म. इसे कारागार में डाल दो इसने हुकुम उदूली की है.

कारागार में मैकू सोच रहा था उसने तो केवल घर में शहतूत का पेड़ लगाया था उस पर रेशम का धागा कोन डाल गया.    


सुधीर मौर्या 'सुधीर'
ग्राम और पोस्ट- गंज जलालाबाद
जनपद- उन्नाव
पिन- २०९८६९
फोन- ०९६९९७८७६३४ / ०९६१९४८३९६३


Friday, 12 October 2012

बलात धर्मपरिवर्तन- देवलदेवी और रिंकल कुमारी













कोई सात सो साल के अंतराल पर घटी दो घटनाएं. एक सात सो साल पहले तब जब भारत, पाकिस्तान और बंगलादेश एक हुआ करते थे, और तो और कुछ भाग तब हमारे अधिकार में अफगानिस्तान का भी रहा करता था. शायद हमारे अधिकार में नहीं वस्तुता : उनके अधिकार में जो शासक थे. उस वक़्त हम पर शाशन करने वाला सुल्तान था अलाउद्दीन खिलज़ी. जिसे अपने हरम में स्त्रियों की संख्या बढाने में अद्भुत आनंद आता था. इसी उद्देश्य के लिए वो भारत के विभिन्न हिस्सों में भटकता फिरा. चाहे वो राजस्थान का चित्तोर हो या फिर गुजरात का पाटन.

यहाँ कुछ इतिहासकार मेरे से असहमत हो सकते हैं, की  अल्लाउदीन ने सिर्फ वासना पूर्ति के लिए ये युद्ध नहीं किये. में इस तर्क से पूरी तरह से सहमत हु. वास्तव में उस सुल्तान में योनी सुख के साथ-साथ धन और साम्राज्य की भी लालसा थी. हा एक बात ओर है , उसका प्रन्शंश्क न होते हुए भी में ये कहूँगा की वो एक महान सेनानायक था.     

पर में सिर्फ उसके नारी देह के सुख के लिए किये गए आताचार के विरुद्ध इस वक़्त इसलिए लिख रहा हूँ क्योंकि इस के परिणामस्वरूप न जाने कितनी लड़कियों को नरक की यातना झेलनी पड़ी.जिसमे  उनका सिर्फ इतना कसूर था की वो जन्म से लड़की थी. उन्हें खिलोने की तरह एक बिस्तर से दुसरे बिस्तर पर धकेला गया. संधियों के वक़्त उन्हें दुश्मनों के आगे भी परोसा गया. ये सब इसलिए उन्हें सहना पड़ा क्योंकि वो स्त्रिया थी. सो उन्हें पुरुष वर्ग की महत्वाकांक्ष की भेंट तो चड़ना ही था.

अब कुछ चर्चा करेंगे गुजरात की राजकुमारी देवलदेवी और सिंध की फूल सी लड़की रिंकल कुमारी के दुर्भाग्य पर.

दोनों के वक़्त के बीच लगभग ७०० साल का फासला है पर ये फासला किसी भी तरह से लड़कियों पर हो रहे आत्याचार और उन्हें योनी-दासियाँ बनाने से न रोक सका है. आज भी उन्हें कभी गरीबी के नाम पर तो कभी धर्म के नाम पर अगुवा कर लिया जाता है और फिर उनका जबरन धर्मपरिवर्तन करके झोंक दिया जाता है बिस्तर पर बनी नरक की भट्टियों में.

* गुजरात से अपने राज्य और अपनी बीवी दोनों को गवाने के बाद जब रजा कर्णदेव बग्लाना में रूककर अपनी अल्पायु पुत्री के विवाह का प्रबंध देवगिरी के राजकुमार शंकरदेव के साथ कर रहा था तब तुर्क सेना ने अचानक धावा बोलकर देवलदेवी का अपहरण कर लिया और उसे तुरंत देल्ही भेज दिया जहाँ उसका जबरन धर्म परिवर्तन करके उसकी इच्छा के विरुद्ध एक नशेडी शहजादे के साथ रहने और उसकी योनी - दाशी बनने को मजबूर कर दिया गया.   

* सिंध के एक शहर मीरपुर में रहने वाली एक मासूम लड़की रिंकल जो उस वक़्त अपने भाई की होने वाली शादी की तय्यारिओं में खुश थी, अचानक एक सुबह मियां मिठो और उसके गुंडों ने उस बेचारी का अपहरण कर लिया. उसी दिन उसका जबरन धर्मपरिवर्तन करके उसे एक मुस्लिम लड़के नवेद शाह की योनी - दासी बना दिया गया, ये बात अलग है की उस वक़्त बेचारी रिंकल रो-रो कर इसका पुरजोर विरोध करती रही.  

* देवलदेवी हर तरह से मिन्नत की पर उसकी एक न सुनी गई और देल्ली सल्तनत ने उसे हरम में रहने पर मजबूर कर दिया.

* रिंकल ने हाई कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक चिल्ला-चिल्ला के अपनी माँ के पास रहने का अनुरोध किया पर सो रही न्याय की देवी ने उसे मियां मिथ्ठो के बनाये  हरम में भेज दिया.
  

 * देवल देवी के फर्जी पति खिज्र खान ने  तब के लेखक को धन दौलत और राजकीय हुक्म देकर अपनी और देवलदेवी की झूटी प्रेमकहानी 'आशिका' लिखवाई.

* रिंकल के अपहरंकर्तावं नेकुछ मीडिया वालो के सामने रिंकल को उसके माँ-बाप को जान से मर डालने  की धमकी देकर उससे झूठा ब्यान दिलवाया.

* देल्ही सल्तनत में हुई उथल-पुथल के कारण मुबारक ने अपने बड़े भाई को अँधा कर के राज्य हथिया लिया साथ ही साथ उसने देवलदेवी को भी अपनी रखेल बनने के लिए मजबूर कर दिया.

* यकीनन (खुदा न करे) मिया मिथ्ठो के हरम में रिंकल के साथ भी एसा ही हो रहा  होगा. 

वक़्त ने फासला जरूर तय कर लिया है पर लड्कियो को  अपने सुख का साधन अब भी समझा जाता है. उनके दर्द के बारे में कोई नहीं सोचता. उन्हें इस धर्म की वेदी पर कुर्बान कर दिया जाता है....

ये सब तब तक होता रहगा...जब तक हम सोते रहंगे...


सुधीर मौर्य 'सुधीर'    



Monday, 8 October 2012

काव्य संग्रह 'हो न हो' की दिलबाग विर्क के द्वारा समीक्षा..




कविता संग्रह ------ हो न हो 
कवि ----- सुधीर मौर्य सुधीर 
प्रकाशक -- मांडवी प्रकाशन , 
                 गाजियाबाद 
पृष्ठ ---- 128
मूल्य -- 100 रु 
हो न हो - युवा कवि सुधीर मोर्य सुधीर का तीसरा काव्य संग्रह है । यह उनकी पांचवीं पुस्तक है । कवि के अनुसार वे गुप्त, पन्त, निराला और दिनकर जी से प्रभावित हैं । उनके खुद के अनुसार इस संग्रह की रचनाएं उनके पहले दो संग्रहों की रचनाओं से बेहतर हैं ।
                  हो न हो वास्तव में पठनीय काव्य संग्रह है जिसमें मुक्त छंद कविता, तुकान्तक कविता और गीत हैं । पहली नजर में यह प्रेम काव्य है जिसमें प्रेमिका की खूबसूरती का निरूपण है, प्रेमिका की याद है, प्रेमिका की बेवफाई है अर्थात संयोग वियोग दोनों में कवि ने कविता लिखी है । गरीबी और जाति प्रेम में बाधक है । कविताओं में इस स्थिति का वर्णन करके कवि समाज का कुरूप चेहरा दिखाता है ।
                  हो न हो शीर्षक को उन्होंने ने कई कविताओं में प्रस्तुत किया है । वे कहते हैं-
 हो न हो / चढने लगा है /
प्रीत का रंग / किसी का इन दिनों  ( पृ - 15)
प्रेम की अभिव्यक्ति न कर पाने वाली युवती का चित्रण वे यूं करते हैं -
हो न हो / करती थी वो 
मूक प्रेम मुझसे । ( पृ - 16 )
कुम्हलाई सूरत और नीर से भरे नयन कह रहे हैं -
खाया था उसने / हो न हो / प्रेम में फरेब 
किसी से इन दिनों  ।  ( पृ - 17 )
नए प्रेमी की ओर झुकाव का वर्णन इस प्रकार है -
हो न हो / वो सवार है / प्रेम की 
दो नाव में इन दिनों ।  ( पृ - 18 )
ऊँची जाति की लडकी जब नौकर के हाथों दिल की बाजी हार जाती है तब यही होता है -
कल शाम नहर के बाँध में / उसकी ही 
लाश पाई गई / वो रो न सकी / 
कुछ कह न सकी /उसकी आँखों की नदिया 
हो न हो / शायद सूख गई ।
ऊसर में कांस फूलने को वे व्यंग्य के रूप में प्रस्तुत करते हैं । गरीब कन्या की दशा पर वे कहते हैं - 
वो बेबस चिड़िया / फडफड़ाती हुई /
दबंगों के हाथों में झूल रही थी / उस घड़ी गाँव में 
ऊसर में / कांस फूल रही थी । ( पृ - 22 )
गरीब राम पर अमीर रावण भारी पड़ता है -
जब बाँहों में रावण के / एक सीता / राम की खातिर 
झूल रही थी / तब उस कमरे के बिस्तर पर 
ऊसर में कांस फूल रही थी ।
गाँव का लम्बरदार जब मनपसन्द शिकार पा जाता है तब -
खून टपकते बदन से / अपने/ जब वो /
झाड धूल रही थी / तब उसके कमरे के बिस्तर पे
ऊसर में कांस फूल रही थी ।
गरीबी और दलित होने का दुःख जगह-जगह बिखरा पड़ा है -
वो थी दलित / यही उसका अभिशाप था ।
जातिवाद का चित्रण वो यूं करते हैं -
एक था बेटा / जमींदार का /
और एक का बाप / हाय चमार ।
गरीब को सपने देखने का हक नहीं -
बिखरे ख्वाबों की किरचें हैं / संभाल कर रखो /
तुम्हें ये याद दिलाएँगे / कि मुफलिस
आँखों में ख़्वाब / सजाया नहीं करते । ( पृ - 47 )
गरीबी प्रेम में बाधक है -
न रक्स रहा, न ग़ज़ल रही / हाय जफा ही काम आई /
भूल के प्यार गरीबों का / अपनाया महल उसने । ( पृ - 31 )
ऐसा  नहीं कि गरीबों को प्रेम नहीं मिलता लेकिन दुर्भाग्यवश ये मिलता थोड़े समय के लिए है । कवि कहता है-
यूं लगा की मुकम्मल मेरा अरमान हो गया 
मेरे घर में दो घड़ी जो चाँद मेहमान हो गया ।
चलते ही ठंडी हवा फिर हाय तूफ़ान हो गया 
ऐ मुफलिसी ये क्या हुआ / ऐ बेबसी ये क्या हुआ । ( पृ - 56 )
गरीबी के अतिरिक्त प्रेम की विफलता के ओर भी कई कारण हैं । खुद की नाकाबिलियत भी इनमें एक है -
सच इतनी प्यारी चीज / बेनसीबों के लिए /
नहीं होती । ( पृ - 74 )
भगवान की नाराजगी भी एक कारण हो सकती है -
हे कपिलेश्वर - दोष क्या है मेरा / क्या आपके दर पे आकर
उन्हें मुहब्बत की नजर से देखना / क्या यही है
आपकी नारजगी का सबब है । ( पृ - 84 )
बेवफाई सबसे बड़ा कारण है और यह कारण अनेक कविताओं का वर्ण्य विषय है -
रकीबों का थाम के दामन हंसे तुम
मेरे प्यार की बेबसी पर हंसे तुम । ( पृ - 57 ) 
बेवफा की बेवफाई आग लगाती है -
वो डोली तेरी वो सजना तेरा
वो मय्यत मेरी वो मरना मेरा
कैसे आग लगाई / अल्लाह-अल्लाह । ( पृ - 80 )
कवि खुद के और अपनी प्रेमिका के प्यार की तुलना करता है -
मैंने अपना तुझे माना / तूने सपना मुझे समझा
बस इतना-सा फर्क था / तेरी मेरी मुहब्बत में । ( पृ - 127 )
बेवफा प्रेमिका की याद प्रेमी को दिलाने के बहुत से कारण कवि को दिखते हैं -
जब कोई लडकी / प्रेम में फरेब /
निभाती है / तू मुझे याद आती है ।
तितली भी कवि को बेवफा लगती है -
देखकर तितली / मुझे न जाने क्यों
तेरी याद आ गई ।
बेवफा को देखकर वो कहते हैं -
काश वो भी / पैदा होता कीचड़ में ।
टूटा प्रेम कवि को निराश करता है । यह निराशा मोमबत्ती के माध्यम से झलकती है -
अँधेरे दूर करने की कोशिशें / बेकार ही हैं । ( पृ - 81 )
टूटे प्रेम ने कवि को इतना सिखा दिया है की वह किसी हसीन को अब तवज्जो नहीं देता । हाँ, इतना उसे जरूर लगता है कि यदि ऐसा कुछ वर्ष पहले हो जाता तो -
शायद तब / ये शफक ये शब
मेरे तन्हा न होते । ( पृ - 82 )
मुहब्बत की हार ने उसे जीवन में भी हरा दिया है -
अगर हम मुहब्बत के मारे न होते
तो गर्दिश में अपने सितारे न होते । ( पृ - 58 )
वो खुद भले प्रेमिका को याद करते हैं मगर प्रियतमा को यही कहते हैं -
कभी दिन में याद आये जो हम
तब तस्वीर मेरी जला देना तुम । ( पृ - 87  )
प्रेमिका की याद कई रूप में उन्हें सताती है -
शाम / जब कभी / छाँव-धूप से
छिपयाती है / तू मुझे याद आती है ।
याद के डर से जाम पकड़ने से भी कवि डरता है -
अब तो हाथ में / जाम लेने से भी / डर लगता है
न जाने क्यों / तेरा अक्स / मुझे अब
उसमें नजर आता है ।
चीजें नहीं बदली लेकिन सब कुछ बदला बदला लगता है जब -
तभी एहसास हुआ / कुछ तो बदल गया
क्योंकि / मुझे चाउमीन / यह आवाज सुनाई न दी । ( पृ - 76 )
याद आने पर कवि अपनी दशा का यूं ब्यान करता है -
दिन गुजरा जब रो रो के / और आँखों से बरसात हुई । ( पृ - 20 )
कवि अपने अतीत को भुला नहीं पाटा और वही गीत बन जाता है - 
मैं गीत लिख रहा हूँ अपने सुनहरे कल के 
लगते थे तुम गले जब मेरे सीने से मचल के । ( पृ - 67 )
कवि की पुकार कोई नहीं सुनता -
लो बादलों के पार गई दिल की मेरी आह 
फिर भी बेखबर है वो मेरा हमराह । ( पृ - 59 )
प्रेम दुष्कर है और प्रेमी को पाना और भी दुष्कर । कवि के सपने भी यही बताते हैं -
कल रात ख़्वाब में / जब मैंने पहाड़ पे चढ़ के 
सूरज को हाथ में पकड़ा / यूं लगा तुम्हें पा लिया ( पृ - 43 )
तभी तो प्रेमी प्रेमिका को पाकर उससे दूर नहीं होना चाहता -
रुक जाओ कुछ पल अभी अरमान अधूरा है 
गुजरने वाला वो हद से तूफ़ान अधूरा है ।  ( पृ  - 49 )
कवि का मानना है कि प्रेम एक जादू है और इसमें डूबे रहने को मन करता है , प्रियतमा भाग्य बदलने का सामर्थ्य रखती है -
उनके कदमों का लम्स 
मेरी झोंपडी को महल कर गया । ( पृ - 94 )
प्रियतमा की सुन्दरता का वर्णन करने में कवि का मन खूब रमा है -
तेरी ये मरमरी बाहें, तेरे ये चाँद से पाँव 
कि अब्र से भी बढकर है तेरे जुल्फ की छाँव 
कमर, चोटी और बोल यूं लगते हैं -
तेरी पतली कमर लचकती डालियाँ / तू बोले तो लगता बजे घंटियां 
वो कमर पे तेरे झूलती चोटियाँ । ( पृ - 105 )
आँखें, अधर और यौवन -
वही सुरमई आँखें / वही मदिर अधर 
और वही / खिलता यौवन ( पृ - 124 )
होंठ रस के सोते हैं -
तेरे होंठों से / रस के सोते बहते हैं ( पृ - 32 )
कवि इस सुन्दरता को देखकर इतना मचल उठता है की वह कह उठता है -
बिना रुखसार के बोसे, ये तेरा मेहमान अधूरा है ( पृ - 49 )
कवि को सुन्दरता का वर्णन करते हुए दुविधा भी होती है-
तुझे शमा कहूं या शबनम कहूं 
प्रकृति का चित्रण कवि ने विभिन्न रूपों में किया है । यहाँ वे प्रकृति से पूछते है कि  मेरी प्रियतमा कैसी है तो प्रकृति से ही वे ये भी पूछते हैं कि मेरी कौन हो तुम । कवि का प्रेमी मन बड़ी सहज ख्वाहिश रखता है -
कुछ फूल हैं / मेरे दामन में / मैं सोचता हूँ 
इस सावन में / इनको तुम्हें अर्पित कर दूं 
अरमान यही बस है मन में 
वह खुद को साधारण आदमी मानता है और प्यार उसकी मंजिल है -
हाँ मैं आदमी हूँ / जो तुमसे इश्क करेगा सादगी भरा 
तुम भूले न होगे कविता में कवि भारतीय परम्परा के भी दर्शन करवाता है -
वो गली जहां/ तुमने अपने कोमल हाथों से 

पहली बार मेरे / पैरों को स्पर्श किया था 
हालांकि इस कविता संग्रह का मूल विषय प्रेम है लेकिन कवि निराला की कुकुरमुत्ता कविता की तरह कैक्टस को धन्य मानता है , कमल को उच्च वर्ग का प्रतीक और पोखर को मजदूर वर्ग का प्रतीक मानता है । वह यह भी कहता है - 
इस मुहब्बत के सिवा जहां गम और भी हैं ।
कवि ने ग्रामीण जीवन के सटीक चित्र प्रस्तुत किए हैं - 
गाँव के पनघट पर ये कलरव / खन खन खन खन बजे चूड़ियाँ 
दे दे झूंक भरे सब पानी / टन टन टन टन बजे बाल्टियां ।
पछुवा शीर्षक इस गीत में कवि ने ध्वन्यात्मक शब्दों से कमाल किया है । कहीं कहीं नीरस वर्णन भी है -
वो छवि जे के टेम्पल की / वो पी पी एन का कैम्पस 
वो कल्यानपुर की बगिया । 
कुछ कविताओं को उर्दू शब्दावली बोझिल बना रही है । लेकिन उपमा, उत्प्रेक्षा, अनुप्रास जैसे अलंकारों का प्रयोग बड़ी खूबसूरती के साथ हुआ है । एकावली अलंकार का सुंदर उदाहरण देखिए  -
नदी पे / तैरते अंगारे / उन अंगारों से निकलती 
धुंए की स्याह लकीर / उन लकीरों में /
दफन होते मेरे ख़्वाब / उन दफन ख़्वाबों में 
भटकती मेरी रूह ।
सामन्यत कविताएँ मध्यम आकार की हैं , लेकिन सितारों की रात एक लम्बी कविता है और बदहाल कानपुर में तीन क्षणिकाएं हैं । कवि मध्यम आकार की कविताओं में ज्यादा सफल रहा है । 
              संक्षेप में कहें तो हो न हो संग्रह सुधीर जी का सुंदर प्रयास है । साहित्य जगत को उनसे ढेरों आशाएं हैं ।
                    --------- दिलबाग विर्क 

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Tuesday, 2 October 2012

प्रियंका चोपड़ा - कदम ऊँचाइयों की ओर...



जन्मदिन-8 जुलाई
जन्मस्थान- जमशेदपुर
कद- 5 फुट 9 फुट
कैरियर के शुरूआती लम्हों में ही ऐतराज में निगेटिव भूमिका निभाकर फिल्मी पंडितों का चौंका देने वाली प्रियंका चोपड़ा की गिनती आज इंडस्ट्री की टॉप हिरोइनों में होती है। चार वर्षो के छोटे से फिल्मी सफर में ही प्रियंका चोपड़ा ने दर्शकों के बीच अपनी प्रभावी पहचान बनायी है। आज उनके पास कई बड़े बैनर की फिल्में हैं। मिस व‌र्ल्ड प्रतियोगिता में भारत का परचम लहराने वाली प्रियंका चोपड़ा का फिल्मी कैरियर आज अपने उफान पर है। यह प्रियंका चोपड़ा की लोकप्रियता और उनकी फिल्मों को मिल रही सफलता का ही नतीजा है कि कई बड़े निर्माता-निर्देशक उन्हें अपनी फिल्म में साइन करने के लिए लालायित हैं।
निर्माताओं की इस पहल में रंग दे बसंती और मेट्रो जैसी फिल्में बनाने वाली प्रतिष्ठित प्रोडक्शन कंपनी यूटीवी मोशन पिक्चर्स ने प्रियंका चोपड़ा के साथ एक बड़ी डील साइन की है। प्रियंका चोपड़ा ने यूटीवी के साथ अगले चार वर्ष में तीन फिल्में करने की डील साइन की है। कृश और डॉन की दोहरी सफलता ने प्रियंका चोपड़ा की प्रसिद्धि में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। प्रियंका हर तरह की भूमिका में स्वयं को ढाल लेती हैं चाहे वह ऐतराज की निगेटिव भूमिका हो या मुझसे शादी करोगी की हल्की-फुल्की भूमिका। प्रियंका चोपड़ा की इसी विशेषता ने उन्हें सभी वर्ग के दर्शकों में लोकप्रिय बनाया है। दरअसल, जब प्रियंका चोपड़ा ने फिल्म इंडस्ट्री में प्रवेश किया था, तभी से उनमें एक सफल अभिनेत्री की संभावनायें देखी जाने लगी थीं। उनमें ग्लैमर और अभिनय क्षमता का अद्भुत तालमेल है, वे एक आम घरेलू लड़की की भूमिका में भी उतनी ही सहज दिखती हैं, जितनी आइटम गर्ल की भूमिका में। हालांकि प्रियंका चोपड़ा की पिछली प्रदर्शित फिल्म सलाम-ए-इश्क बॉक्स ऑफिस पर असफल रही, पर इस बार भी उन्होंने अपने प्रशंसकों को निराश नहीं किया। आने वाले दिनों में वे अभिषेक बच्चन के साथ द्रोण और हरमन बावेजा के साथ लव स्टोरी 2050 में दिखेंगी। छोटे से शहर बरेली से मिस व‌र्ल्ड और फिर सफल अभिनेत्री तक के सफर में प्रियंका का आत्मविश्वास और उनके परिवार का साथ हमेशा ही उनके साथ रहा। अपने फिल्मी कैरियर की इन ऊंचाइयों को छूने के बाद भी प्रियंका चोपड़ा खुद को एक आम लड़की के रूप में ही देखती हैं।
करियर की मुख्य फिल्में
वर्ष फिल्म चरित्र
2003- द हीरो- शाहीन जकारिया
2003- अंदाज- जिया सिंघानिया
2004- किस्मत- सपना गोसाई
2004- असंभव- अलीशा
2004- मुझसे शादी करोगी- रानी सिंह
2004- ऐतराज- सोनिया राय
2005- ब्लैकमेल- मिसेज राठौड़
2005- करम- शालिनी
2005- वक्त- पूजा मिताली
2005- यकीन- सीमर ओबेराय
2005- बरसात- काजल कपूर
2005- ब्लफ मास्टर- सिमरन आहूजा
2006- आपकी खातिर- अनु आहूजा
2006- डॉन- रोमा
2007- सलाम-ए-इश्क- कामिनी
2007- बिग ब्रदर- आरती शर्मा
अन्य फिल्में- लव स्टोरी 2050, गॉड तुसी ग्रेट हो, गोल्डी बहल की द्रोण, मधुर भंडारकर की फैशन और साहब बीबी और गुलाम, दोस्ताना, बिल्लू, कमीने, वॉट्स योर राशि, अंजाना अंजानी, सात खून माफ, रा.वन, डॉन 2, अग्निपथ, तेरी मेरी कहानी, बर्फी।

Monday, 1 October 2012

ऐ रिंकल !





मैने जब भी छत पे खड़े होकर
तेरे देश से आती हवाओ से
तेरा हाल पूछा...
उन्होंने मुझे बचपन में पड़ी
उस कहानी की याद दिला दी
जिसमे एक दानव ने
कैद कर रखा था
एक राजकुमारी को 
ज़हर की अनगिनत सुइंया
चुभो कर...
जिसके 
अर्धचेतन मन और
पूर्ण अवचेतन  तन को
इंतज़ार था उसका
जो आकर  उसके शरीर में बिंधी
सुइयां निकलकर 
उसे आज़ाद करेगा 
दानव की कैद से...

ऐ रिंकल !
उस कहानी में 
राजकुमार था
पर यहाँ नहीं...
सो ऐ बहादुर लड़की
वो ज़हर भरी सुइयां
तुझे ही निकालनी होगी 
अपने शरीर से...
यकीन कर
कहानी का अंत
सुखद होना तो तय है
हमारे सामने 
उदाहरन है
कृष्ण की मित्र
द्रौपदी का
कृष्ण की मित्र होकर भी
दर दर भटकना पड़ा था उन्हें
पर अंत तो सुखद ही था न.. 

कभी वो हवा
जो आई हो मेरी दिशा से
वो बताय्गी
तेरा ये भाई, तेरा ये दोस्त
सलाम करता है 
तेरी जात को...
आज 'अमृता प्रीतम' होती
तो वारिस शाह से
तेरे लिए दुआ मांगती...
तेरी आज़ादी के खातिर
अफसाने लिखती...

ऐ रिंकल !
में जगाना चाहता हु
सोय पड़े लोगो को
उनकी कलम को
जो स्याही से 
वो इबारत तामीर करे
जिसके जलजले से
मीरपुर मेथलो की
वो इमारत भरभरा के
गिर पड़े
और उस इमारत से 
तुन बहार निकले 
अपने शरीर में
चुभी
आखरी सुई को
निकलते हुए

ऐ  रिंकल !




Sunday, 30 September 2012

कर्ज..


मैं सुबह-सुबह फ्रेश होकर मनोज के घर पहुंच गया था, मनोज जो मेरे बचपन का मित्र था, मुझे देखते ही खुश हो गया। मेरे गले लगकर वो न जाने कितने मुझे उलाहने देने लगा, फोन क्यों नहीं किया और न जाने क्या-क्या, वो तो शायद गिले-शिकवे करता ही रहता अगर बीच में उसकी मम्मी न आ जाती।
आंटी, यानी मनोज की मम्मी ने मुझे प्यार से बैठाया और मनोज से बोली-तू बोलता ही जा रहा है देखता नहीं इतनी ठण्ड में कैसे बेचारा सुबह-सुबह तुमसे मिलने आ गया है। आंटी मेरे सर पर प्यार से हाथ फिरा कर ये बोल कर चली गई-तुम दोनों दोस्त बैठकर बातों करो तब तक मैं तुम दोनों के लिए चाय और नाश्ता लेकर आती हूं। यद्यपि मैं घर से नाश्ता करके आया था फिर भी उन्हें मना न कर सका बचपन से ऐसा ही था न जाने क्यों मैं उन्हें किसी भी बात के लिए मना नहीं कर पाता था, इसका कारण शायद यह था कि बचपन से ही आंटी का मुझ पर पुत्रवत स्नेह था।
मनोज, अपनी मम्मी के जाते ही फिर मुझसे चिपट कर बैठ गया और बोला- बता रवि कैसा चल रहा है मुम्बई में, जॉब कैसा है, किसी लड़की से दोस्ती हुई या अभी तक ऐसा ही है, उसने फिर ढ़ेर सारे प्रश्न मेरे तरफ उछाल दिये थे। मैं बोला थोड़ा शांत हो जा तू मैं सब बताता हूं तुझको-एक तो मेरा जॉब बिल्कुल ठीक चल रहा है, दूसरी बात जो ज्यादा महत्व की है वो यह है कि एक बेहद खुबसूरत लड़की से मेरी दोस्ती भी हो गई है।
मेरी यह बात सुनकर मनोज को काफी खुशी हुई थी। वह बोला नाम तो बता भाभी का-
मैं बोला-संजोत
हाय कितना प्यारा नाम है वह चहकते हुए बोला कोई फोटो-वोटो लाया है उसका-
मैं मुस्कराते हुए, जेब से पर्स निकाल कर उसमें से संजोत का फोटो निकाल कर मनोज की तरफ बढ़ा दिया और उसने मेरे हाथ से फोटो छीन लिया-कुछ सेकेंड फोटो देखने के उपरांत वह बोला क्यों बे-इतनी सुंदर लड़की ने तेरे साथ दोस्ती कैसे कर ली।
मैंने कहा तू सच बोलता है मनोज वास्तव में संजोत बहुत ही सुंदर है। हम अभी हाथ में फोटो लेकर बात कर ही रहे थे इतने में हाथ में नाश्ते की ट्रे लेकर आंटी आ गई।
मनोज के हाथ में तस्वीर देख कर ट्रे को मेज पर रखते हुए बोली किसकी तस्वीर है, मैंने बहाना बनाने की कोशिश की और बोला कुछ नहीं आंटी बस ऐसे ही पर आंटी ने मनोज से वो तस्वीर ले ली-कुछ देर वो अपलक उसे निहारती रही फिर बहुत प्यार भरी नजरों से मुझे देखकर बोली-बहुत ही प्यारी बच्ची है-तूने घर पर बात की-
मैंने इन्कार में सर हिलाया-तो वो बोली-ठीक है वह खुद मेरे घर जाके मेरी मम्मी से बात करेंगी।
मैंने अबकी बार सहमति मंे सर हिलाया और बदले में वो मुस्कराकर वापस अंदर चली गई।
मैं मनोज की तरफ देखकर बोला फिर क्या प्रोग्राम है आज का-
प्रोग्राम क्या है घूमेंगे, सैर करेंगे, मूवी देखेंगे पर सबसे पहले नाश्ता करेंगे, मनोज की इस बात पर मैं हंसे बिना न रह सका-
खैर हमने नाश्ता किया, नाश्ते में आलू का परोठा था जो मेरे मनपसन्द व्यंजन में से एक है चाय पी और मनोज की मम्मी से आज्ञा लेकर हम बाहर घूमने के लिए निकले।
हम लोग लान पार करके ज्योंहि मेनगेट पर पहुँचे, वैसे ही स्कूटी से पारूल आ गई। पारूल जो मनोज की बहन है, बचपन से वो मुझे भी हर रक्षाबंधन से पहले डाक या कुरियर द्वारा मिल ही जाती थी। मेरी कोई बहन नहीं थी पर पारूल ने कभी इसकी कमी मुझे महसूस नहीं होने दी।
मुझे देखकर वह स्कूटी खड़ी करके दौड़ कर सीधे मेरे पास आ गई कब आये भैय्या, और आते ही कहां जा रहे हो, मुझसे मिले भी नहीं मेरे बारे में पूछा भी नहीं होगा। वह मासूमियत से ढ़ेर सारे प्रश्न पूछे जा रही थी। मैंने प्यार से उसके गाल को थपथपाया और बोला ऐसा हो सकता है क्या, कि मैं तुझसे न मिलू तेरे बारे में न पूछू-मैं तो बस थोड़ा बाहर घूमकर वापस आ रहा था।
वह इठलाते हुए बोली मैं अच्छी तरह जानती हूं आप लोगों का थोड़ा घूमना-सुबह जो निकले तो शाम से पहले आने से रहे। फिर वह मेरा हाथ पकड़ कर बोली अच्छा यह बताओ मेरे लिए क्या लाये हो?
मैं उसके सर को सहलाते हुए प्यार से बोला बहुत कुछ लाया तेरे लिए, शाम को घर पे आके ले जा-फिर मैंने उससे पूछा पढ़ाई कर रही है या ऐसे ही दिन भर घूमती रहती है-
वह बोली आपको क्या लगता है?
मैंने कहा-मैं जानता हूं तेरा अपनी पढ़ाई पर पूरा ध्यान होगा-मनोज जो अब तक मूक़ दर्शक बना खडा़ था-बीच में बोला पारूल तू शाम को रवि से जी भर के बातें कर पर अभी हम लोगों को जाने दे।
पारूल मेरी तरफ देखकर बोली ठीक है रवि भैय्या आज आपको छोड़ती हूं, पर कल का दिन मेरे नाम, मैं कल सवेरे सवेरे आपके घर पे आती हूं-मैंने कहा ठीक है जैसा तेरा हुक्म पर अभी क्या मैं जाऊं उसने हां में सर हिलाया और फिर अन्दर की तरफ कोई गीत गुनगुनाती हुई चली गई।
मनोज, गैरेज की तरफ बढ़ा तो मैं उसे रोक कर बोला-मैं गाड़ी लाया हूं बाहर खड़ी है उसी में चलते हैं।
खैर पूरे दिन मैं और मनोज घूमते रहे, पुराने दोस्तों से मिले, लंच किया मूवी देखी-
बातों ही बातों में मैंने अपने पुश्तेनी घर जाने की बात की मनोज भी तैयार हो गया-मेरा पुश्तेनी घर लखनऊ से कोई अस्सी किलोमीटर दूर हरदोई रोड़ पर था, मैं बचपन से ही मम्मी, पापा व भाई-बहन के साथ लखनऊ में ही रहा था, कभी-कबार ही मैं अपने दादा के पास गांव जाता था हमारी पुश्तेनी हवेली अभी भी मौजूद थी, हमारे सबसे छोटे चाचा अपने परिवार के साथ उसमें रहते थे।
अगले दिन मम्मी से इजाजत लेकर हम दोनों दोस्त अपने गांव के लिए निकले, मारूती जेन गाड़ी को उमपद ड्राइव कर रहा था और मनोज मेरे बगल वाली सीट पर बैठा हुआ था। मौसम खुशनुमा था, हल्का संगीत स्टीरियो पर चल रहा था मैं और मनोज गुजरे दिनों की बाते में मशगूल थे।
सफर कब कटा मालूम ही नहीं चला, हम अपने गांव के करीब पहुंच चुके थे, मैंने कार को मेन रोड से उतारकर गांव जाने वाली रोड पर डाल दिया था यह रोड, हाईवे जैसी अच्छी नहीं थी पर कोलतार की बनी हुई थी, पहले यहां पर खडन्जा लगा हुआ था, हाईवे से मेरे घर की दूरी करीब दस मील थी।
हाईवे से गांव को जोड़ने वाली सड़क बेहद खराब थी, कई जगह तो वो पूरी तरह गहरे में तब्दील हो चुकी थी, इसलिए मैंने जेन की रफ्तार काफी कम कर दी थी, मैं और मनोज विभिन्न मुद्दों पर बात करते रहे थे।
मैं अब गाड़ी ड्राइव करने के साथ-साथ खिड़की से बाहर दृश्यों का भी आनन्द लेने लगा था, हालांकि मैंने खिड़की पर शीशे चढ़ा रखे थे, ऐसा मैंने इसलिए किया था ताकि मैं बाहर की ठण्ड से बच सकूं। मनोज ने भी ऐसा ही किया था, वैसे भी दिसम्बर के अन्त में भारत के इस भाग में ठण्ड कुछ ज्यादा ही पड़ती है।
अभी गाड़ी इस खस्ताहाल सड़क पर कुछ देर ही चली थी कि थोड़ी दूर पर एक मैदान में कुछ लड़के क्रिकेट खेलते हुए दिखाई दिये।
ये खेल कितना लोकप्रिय हो गया है मैंने मनोज से बोला, मनोज बदले में सिर्फ मुस्करा दिया-
मैं फिर उससे बोला क्या बोलते हो-कुछ देर लुत्फ लेते हैं इसका
वो फिर मुस्कराकर बोेला-ऐसी छोटी-छोटी इच्छाओं का दमन तो कभी भी नहीं करना चाहिए-उसकी सहमति पाते ही मैंने मैदान के नजदीक गाड़ी के बोनेट के सहारे खड़े हो गये-मैंने अपना पसंदीदा ब्रांड गोल्ड फ्लक;सिंाद्ध की सिगरेट सुलगा कर होठों से लगा ली थी, हां मनोज को ऐसा कोई ऐब न था पर मैं सिगरेट के साथ-साथ कभी-कभी बियर भी पी लिया करता था।
हम दोनांे बच्चों को खेलते हुए देखने लगे अभी हमें दस-बारह मिनट ही हुए होंगे कि मैं एक तरफ चल दिया-पीछे से मनोज ने पुकारा कहां चले रवि-बदले में मैंने एक अंगुली उठा कर उसे संकेत से बताया कि मैं लघुशंका के लिए जा रहा हूं।
मैं अभी एक पेड़ के नीचे खड़े होकर पेंट का जिप खोल रहा था कि मेरी नजर जमीन पर रखे कुछ सिक्कों पर पड़ी-पांच-पांच के सिक्के एक के ऊपर एक रखे हुए मैंने बिना लघुशंका किये बैठ गया उन सिक्कों के करीब-उन सिक्कों के नीचे की मिट्टी काफी निकल गई थी ऐसा शायद बारिश की वजह से हुआ था। शायद तीन चार मौसम की बारिश, मैंने आहिस्ता से सिक्के उठाये पांच-पांच के छः सिक्के यानी तीस रूपये। मैंने जेब से रूमाल निकाल कर सिक्के साफ करने चालू किए-और इसी के साथ मेरे दिमाग पर जमी हुई मिट्टी भी साफ होने लगी-मेरे दिमाग में अंघड़ चलने लगा, गुजरी तस्वीरे एक-एक करके आंखों से गुजरने लगी।
हां वो मई की तपती दोपहर थी, गर्म हवाऐं अपने पूरे शबाब पर थी, लूक के थेपेड़े चेहरे को झुलसा रहे थे, मैं चाचा के मना करने के बावजूद भी इस भरी दोपहर मैं जीप से लखनऊ के लिए चल पड़ा था घर से निकल कर मैंने पानी के लिए तड़प कर जीप एक पेड़ के नीचे रोक दी छाव में उसको खड़ा करके पेड़ की जड़ पर बैठ गया। पसीना, आंधी-तूफान शरीर से बाहर उछल रहा था। जेब से रूमाल निकाल कर मैं उसको पसीने से गीला करने लगा, प्यास की वजह से मुंह सूख रहा था मैं अपनी बेवकूफी पर पछता रहा था, कि इतनी धूप में क्यों बाहर निकला और अगर निकला भी तो एक पानी की बोतल भी साथ में नहीं ली। पानी की तलाश में मैंने इधर-उधर देखना चालू किया पर मुझे दूर-दूर तक इन्सान तो क्या कोई परिन्दा भी नजर नहीं आ रहा था।
मेरी व्याकुलता बढ़ती जा रही थी, तभी मुझे दूर से एक बैलगाड़ी आती हुई दिखाई पड़ी, मुझे कुछ उम्मीद हुई थी शायद मेरी प्यास बूझने का सबब उस बैल गाड़ी में मौजूद हो, मैंने ध्यान से देखा वो बैलगाड़ी मेरी तरफ ही आ रही थी, मैंने पेड़ के तने से पीठ लगाकर आंखे बन्द कर ली और बैल गाड़ी के आने का इन्तजार करने लगा।
बैलगाड़ी बहुत धीमी रफ्तार से मेरे करीब आ रही थी पर मैं क्या करता तभी ख्याल आया कि जीप को स्टार्ट करके बैलगाड़ी तक पहुंच जाऊं पर मेरे से उठने को नहीं हुई दूसरे जीप के इंजन के गर्मी भी नाकाबिले बर्दाश्त थी। खैर मैं बैठकर बैलगाड़ी के आने का इन्तजार करने लगा।
पेड़ की छाँव ने मेरे शरीर को थोड़ी राहत बख्शी थी, मैंने अपनी आंखें वापस बन्द कर ली थी। थकान की वजह से थोड़ी सी सुस्ती भी सवार हो रही थी। जब कानों में बैलों के घुंघरू बजने की आवाज पड़ी तो मैंने आंखे खोेली पर तभी मुझे किसी के कराहने की आवाज सुनाई बैलगाड़ी से ही आ रही थी, कराहने की आवाज यकीनन जनाना थी।
मैं खड़ा हो गया, अब तक बैलगाड़ी काफी नजदीक आ चुकी थी, उसे कोई चौदह-पन्द्रह साल का लड़का हांक रहा था और बैलगाड़ी में एक लड़की लेटी हुई थी, कराहने की आवाज उसी लड़की की थी, बैलगाड़ी भी उसी पेड़ के नीचे आ खड़ी हो गई थी जिसकी छांव में मैंने पनाह ले रखी थी।
मैं उठकर बैलगाड़ी के पास जा पाता उससे पहले ही बैलगाड़ी हांकने वाला लड़का गाड़ी से उतरकर भाग कर मेरे पास आ गया-मैं उठकर खड़ा हो गया था-लड़का मेरे पैरों से लिपट गया था-वो लगभग चीखते हुए बोला-हमारी आपा को बचाया;इंबींलमद्ध ले।
मैं लड़के के अपने पांव पर गिरने से परेशान हो गया था। उसे उठाकर खड़ा किया और मैं बैलगाड़ी की तरफ लपका करीब पहुंचकर देखा तो बैलगाड़ी में एक जूट की बोरिया बिछी हुई थी और उस पर बेहद खुबसूरत सोलह-सतरह साल की लड़की लेटी हुई थी। लड़के के घबराने के अन्दाज से मुझे लगा था कि लड़की बहुत गम्भीर रोग से ग्रसित होगी पर अब मैं संयत हो गया था क्योंकि लड़की की कराहने की वजह और कुछ नहीं प्रेग्नेन्सी की पीड़ी;चमकंद्ध थी।
लड़की की नजर मुझ पर पड़ी तो उसके चेहरे पर थोड़ी सी हया आ गई, दर्द को जब्त करते हुए उसने अपने पेट पर टुप्पट्टे को सही किया था।
तपता सूरज सीधे उसके ऊपर था और बेदर्दी से उसके हसीन चेहरे;बीमीतंद्ध कुम्हला रहा था-उसके होंठ सूख रहे थे वो दर्द जब्त करने की कोशिश में अपने निचले होठांे को बार-बार दांतों के बीच दबा रही थी। मैंने लड़के की तरफ देखा उसे पास बुलाया और पूछा यह कौन है तुम्हारी दीदी?
वह बोला-हां-
कहां लेके जा रहे हो-
कासिम पुर अस्पताल-
वो तो अभी काफी दूर हैं-
बाबूजी आप अपनी जीप से पहुंचाये देव-उस लड़के ने फिर हाथ जोड़े-
मैं बोला-पहले अपनी दीदी को पानी पिलाओ-
वह भाग कर गया और बैलगाड़ी के पीछे, नीचे की तरफ बंधी हुई बाल्टी खोल लाया-मैंने बाल्टी को देखा तो लड़के के अहमक पानी पे गुस्सा आ गया-रास्ते के गढ्ढे और बैलगाड़ी की चाली मेहरबानी थी कि बाल्टी में मुश्किल से 200 ग्राम पानी बचा था-खैर मुझे लड़के पर भरोसा नहीं था इसलिए मैंने बाल्टी खुद ले ली और लड़के से बोला जरा अपनी दीदी को उठाओ और इस तरह मैंने उस लड़की को पानी पिलाया। मुझे अफसोस था कि बाल्टी में मेरी प्यास बुझाने को पानी नहीं बचा था-पर पता नहीं क्यों अब मुझे वैसी प्यास नहीं सता रही थी जैसी कुछ देर पहले सता रही थी-खैर मैंने लड़के की तरफ देखा-मैंने देखा कि उसकी आंखे याचना कर रही हैं-मैंने पूछा तुम्हारा नाम?
वसीम-छोटा सा जवाब।
मैंने अन्दर ही अन्दर फैसला किया और बैलगाड़ी से लड़की को अपनी बाजुओं में उठा लिया और अपनी कमांडर जीप के बीच वाली सीट पर लिटा दिया-लड़के से बोला-तुम्हारी आपा को मैं अस्पताल पहुंचाये देता हूं-तू क्या करेगा-
वह बोला-घर लौट जइये-
कहां है घर-
गुलहरिया गांव-
खैर मुझे लगा कि व्यर्थ की देर करना बेकार है
इसलिए मैंने एक नजर लड़की पर डाली और ड्राइविंग सीट पर बैठकर स्टार्ट कर दी और उसे रोड़ पर लाकर रफ्तार दे दी-लड़की अभी भी कराह रही थी-उसकी प्रेग्नैन्सी का ख्याल आते ही मैंने गाड़ी की रफ्तार थोड़ी कम कर दी क्योंकि हाईवे की तुलना में रोड़ ज्यादा अच्छा नहीं था। मैं बीच-बीच में पीछे मुड़कर देखता जाता था लड़की ने सीट में लगी हुई बेल्ट को पकड़ लिया था, मैं उसको सात्वना देने के उद्देश्य से बोला बस थोड़ी ही दूर है अस्पताल-मेरी बात पर वो इतनी पीड़ा के बावजूद मुस्करा दी-मैंने हल्की सी रफ्तार ओर बढ़ा दी थी।
कोई पन्द्रह मिनट पर मैं अस्पताल के सामने पहुँच गया था गाड़ी को अहाते में लगा कर मैं उतरा और लड़की से बिना कुछ बोले मैं भागते हुए अस्पताल के अंदर चला गया-अंदर जाकर मुझे बेहद अफसोस हुआ पूरे अस्पताल में एक वार्डब्वाय के अलावा और कोई न था-वह वार्डब्वाय मुझे डॉक्टर और नर्स के अबसेन्ट होने की तफसील समझाने लगा तो मैं उस पर भड़क कर अस्पताल से बाहर आ गया-
लड़की को देखकर बोला-नाम क्या है तुम्हारा-
वह बोली-परवीन-तुम्हें यह दर्द थोड़ा और जब्त करना होगा-क्योंकि यह अस्पताल, डॉक्टर और मरीज दोनों से खाली है।-
वो बोली-फिर
मैं बोला-फिर क्या-लखनऊ चलते है-
उसने सहमति में सर हिलाया था-और मैंने जीप को अस्पताल से निकाल कर लखनऊ जाने वाले हाईवे पर डाल दिया-मेरी जीप इस समय चिकने हाइवे पर हवा से बातें कर रही थी और मुझे परवीन न जाने क्यों अपने भाई की तुलना में बड़ी जहीन लग रही थी।
खैर अगले एक घंटे में ही मैं लखनऊ के चौक इलाके में पहुंच गया था जहां पर मेरे दोस्त आदित्य के बड़े भाई का नर्सिंग होम था जहां पर आदित्य के भाई व भाभी दोनों ही बैठते थे और भाभी तो जच्चा-बच्चा विशेषज्ञ थी, उनका मुझ पर भी काफी स्नेह था।
मैं परवीन को एक बार फिर अपनी बांहो में उठाकर नर्सिंग होम के अन्दर आ गया, मुझे सामने ही नम्रता भाभी दिखायी पड़ गयी, मैं परवीन को स्टेचर पर लिटा कर लपक कर उनके पास पहुँच गया-
वह हैरत से कभी मुझे और कभी परवीन को देख रही थी।
वह मेरी खिंचाई चालू करती-उससे पहले ही मैंने उन्हें पूरी तफसील समझा दी-
बदले में भाभी ने बड़े प्यार से मेरे सर पर हाथ फिराया था-
मैंने परवीन को उनके हवाले कर दिया था-और कोई आंधे घंटे में उसने खूबसूरत और स्वस्थ लड़के को जन्म दिया था-
मैं उसे खिड़की से देखकर घर की तरफ जाने के लिए चल पड़ा-हां मैंने भाभी से यह जरूर बोला था कि उसके डिस्चार्ज के समय मुझे इन्फार्म कर दे साथ ही यह भी रिक्वेस्ट की वह उससे कोई पैसा न ले।
अगले दिन शाम को भाभी का फोन आया कि कल सुबह परवीन घर जा सकती है और अगले दिन सुबह मैं नर्सिग होम पहुँच गया था-भाभी ने उससे कोई पैसा नहीं मांगा था बल्कि उसे इस बारे में यह बोल कर मुतमईन कर दिया था कि ऐसे काम के लिए उन्हें एक संस्था से बाकायदा हर महीना पैसा मिलता है। मैंने जब भाभी को पैसे देने चाहे तो उन्होंने मुझे बहुत प्यार से डांट दिया था और मैं चुप रह गया था।
परवीन इस समय जीप में मेरे बगल में बैठी थी और मैं उसे धीरे-धीरे ड्राइव कर रहा था-उसको मैंने ध्यान से देखा यकीनन वह बहुत खुबसूरत थी उतना ही खुबसूरत था उसके गोद में बच्चा।
रेस्टोरेन्ट में मैंने उसे नाश्ता कराया जिसके लिए वह बहुत मुश्किल से तैयार हुई थी। वहीं पर मुझको उसकी तफसील उसी की जबानी मालूम हुई।
वह बहुत गरीब परिवार से थी-उसका शौहर अहमद रोजगार के सिलसिले में दिल्ली में था-उसकी मां और सास दोनों ही बेहद बूढ़ी थी और चलने-फिरने से लाचार थी। ले-दे कर एक भाई घर पर था। वह जब भी मुझे देखती बहुत ही कृतज्ञ नजरों से देखती। वह दसवीं तक पढ़ी थी और उसमें हर चीज का काफी सलीका था।
मेरे बहुत इसरार पर भी उसने बहुत कम खाया था। हां उस दिन जल्दबाजी में उसके पैसे वसीम के पास ही रह गये थे। इसलिए उसने बहुत लज्जा के साथ केवल बीस रूपये मांगे थे, लखनऊ से उसके घर तक जाने का बस का किराया।
मैंने उसे कैंसरबाग बस अड्डे पर उसके गांव की तरफ जाने वाले बस में बैठा कर उसे टिकट ले कर दिया था जो बीस रूपये का था। मैंने उसे राह खर्च के कुछ रूपये देने चाहे तो उसने सख्ती से मना कर दिया था फिर न जाने क्यों शायद अपने बच्चे के बारे में सोचकर उसने केवल दस रूपये मुझसे लिए थे।
मैं उसके बच्चे का माथा सहला कर बस से उतरने लगा रवि एक मिनट रूको-
मैंने पलट कर उसको देखा तो वह बोली तुम्हारे इस एहसान को क्या नाम दूं-
मैं बोला-कुछ एहसान कुछ रिश्ते किसी नाम के मोहताज नहीं होते परवीन-न जाने क्यों मेरे जवाब से उसकी आंखे मुतमुईन हो गई थी। वो फिर बोली पर मैं यह तुम्हारे तीस रूपये वापस कर दूंगी-यह रूपये कर्ज हैं मुझ पर।
मैं मजाक के अंदाज में बोला-लेकिन कहां?
वह बोली वहीं उस पेड़ के नीचे जहां आप फरिश्तों के तरह आप मेरे लिए आए थे-
मैं मुस्करा कर बस से उतर पड़ा और बस चल दी मैं धूल उड़ाती जा रही बस को देखता रहा हां वह भी खिड़की से सर बाहर निकाल कर मुझी को देख रही थी।
और फिर बस मेरी आंखों से ओझल हो गई।
किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रखे तो मैं चौक कर पलटा वह मनोज था। उसने पूछा क्या हुआ? हां मैंने उसे उन सिक्कों के बात कुछ नहीं बताया था। वह सिक्के मेरे लिए अनमोल थे मैं उन सिक्कों के बारे में कोई भी मजाक बर्दाश्त नहीं कर सकता था। मैंने उसे टाल दिया था।
मैं गांव जाकर अगले दिन ही वापस लखनऊ लौट आया और मां की गोद में सर रख कर उनको पूरी बात बताई उन्होंने उस दिन बहुत प्यार से मेरे सर को सहलाया था।
वह सिक्के अब तलक मेरे पास हैं, मैं जब उन्हें देखता हूं तो परवीन मुझे याद आती है। हां उसने अपना कर्ज उतार दिया था। मेरे दिल से दुआ निकली है वह जहां भी हो अपने बच्चे और शौहर के साथ खुश रहे।

From 'Adhure Pankh'
By- Sudheer Maurya Books