कसबे में एक हरे रंग के बाशिंदे में साथ उसकी उठक - बैठक थी। कहते है जब दिल में डर हो तो उसकी लकीरे चेहरे पर नुमाया हो जाती है। उसकी भी हुई। और उन डर की लकीरों पर उस हरे रंग के बाशिंदे अब्दुल की भी नज़र पड़ी।
उस दिन अब्दुल जब उसके साथ बैठा चाय पी रहा था उसके चेहरे पे उभरी डर की लकीरों पे नज़र चुभाते हुए अब्दुल बोला - 'क्यों बे विजय तेरे चेहरे पे हर वक़्त हवाइयां क्यों उड़ती रहती है। '
अब अब्दुल ने विजय को 'बे' कोई प्यार - मुहब्बत में तो नहीं बोला था। सच तो ये था कसबे में हरे रंग वाले बहुसंख्यक थे। सो अल्पसंख्यक गेरुए रंग वालो को 'अबे - तबे' सुनने की आदत हो गई थी। कभी - कभी इससे भी ज्यादा। भौंस .... , मादर .... , आदि - आदि।
अब विजय का अब्दुल के साथ उठना - बैठने था सो अब्दुल उसे अबे - तबे से ज्यादा नहीं बोलता था। इतना लिहाज़ तो लाज़िमी था। हाँ विजय, अब्दुल को अबे - तबे बोले ऐसा कोई हक़ उसे हांसिल नहीं था।
विजय, अब्दुल के अबे - तबे के सम्बोधन पर न पहले कभी उलझा था न आज उलझा। बस चाय सुड़कते हुए अपने डर का पर्दा सरकाता रहा।
पूरा पर्दा सरकने के बाद अब्दुल ने अपने दाये हाथ की तर्जनी से अपनी दाढ़ी खुजाई, फिर अचानक हो हो करके हंस पड़ा। वो हँस रहा था और विजय उसे यूँ हँसता देख खुद को अहमक समझ रहा था। अब्दुल को वो अहमक समझे ऐसा हक़ भी उसे हांसिल नहीं था। वो गेरुए रंग का जो था। गेरुया रंग कसबे में अल्पसंख्यक जो था।
अचानक अपनी हँसी रोक कर अब्दुल ने एक चपत विजय के जांघ पर मारी और फिर बोला 'ये क्या मनघडंत बवाल पाल रखा है मिया तुमने अपने दिल में। ये लव सव जिहाद कुछ नहीं होता है। अरे तुम्हारी लड़की को प्यार - स्यार हुआ है, उस लड़के से। और तुम तो जानते हो मियां जब प्यार होता है तो लड़कियों का रंग निखरता है। सो खुश रहो मियां और वक़्त पे बाँध दो अपनी लड़की को उस अफ़रोज़ के साथ निकाह के फंदे में।'
--कहानी संग्रह 'ऐंजल ज़िया' में संग्रहीत कहानी 'लव ज़िहाद और आईने का सच' का अंश।
--ये कहानी संग्रह अमेज़ॉन पे सिर्फ 125 रूपये में उपलब्ध है।
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