Friday, 28 March 2014

जल्दी करो (लघुकथा) - सुधीर मौर्य

जल्दबाजी में इकरा बचते-बचाते गैर मजहब इलाके में गयी। धार्मिक नारे लगते लोग उसकी तरफ बढे,  इकरा सूखे पत्ते की तरह कांपने लगी। किसी तरह आरती उसे उन्मादियों से बचा कर अपने घर लायी और कुछ दिन अपने मजहब की तरह कपडे पहनने को कहा।
दुसरे मजहब के लोग अल्लाह हो अकबर के नारे लगाते  मोहल्ले में बदला लेने की गरज से घुसे, जो मर्द सामने काट डाला और लड़कियों की अस्मत लूटने लगे।
इकरा भी उनके हत्थे चढ़ी, बेचारी रो-रो कर अल्लाह की दुहाई देती रही कि वो उनके मजहब की है। पर वो ये कहते हुए, साली बचने के लिए बहाना करती है, उस पर टूट पड़े।
इकरा का भाई लूट-पाट करता उसी घर में घुसा और बहन को अपने ही मजहबियों से लूटते देख अवाक रह गया।

भाई को देख कर कराहती हुई इकरा के होठो पर एक फीकी मुस्कान उभरी। फिर वो अपने ऊपर लेटे बलात्कारी से बोली ''जल्दी  करो'' आपका एक साथी और गया है।                  -----सुधीर मौर्य 

Friday, 21 March 2014

सबसे खुबसूरत पल - सुधीर मौर्य

! प्रियतमे 
हमारी जिन्दगी का 
सब से खूबसूरत पल 
हमारे इंतजार में
बेकरार है वहां 
जहाँ पे 
फलक और जमी  
आलिंगनबद्ध 
होते हैं।

 फ़लक़ - जमीं का 
मिलन 
कोई मारिच्का नहीं है 
वह तो 
शास्वत सत्य है 
जिन्हें हम 
दूर की नज़र से 
देख सकते हैं
किन्तु नजदीक से नहीं।

क्यों
क्योंकि यह मिलन 
अदेहिक है,
रूहों का है।

अरे ! प्रियतमे 
सही देहिक 
हम आत्माओ से मिले है 
जिसे 
दुनिया देख नहीं सकती।