हर धर्म का सार तो यही होना चाहिए कि वो दूसरे के धर्म का भी भी उतना ही सम्मान करे जितना वो अपने धर्म का करता है। हम अगर कहीं राह से भी गुज़र रहे हो तो हमारा सर राह में आने वाले मंदिर, मस्ज़िद, मज़ार के आगे झुंकने में भेद नहीं करता। असल में हम इन सब जगहों पर ईश्वरीय वास होने की बात मानते है, हमारा धर्म हमें दूसरे के धर्म का सम्मान करने कि शिक्षा देता है तभी तो हम दूसरे धर्म के उपासना स्थल के आगे अपना माथा नवाते हैं। पर इस्लाम इसकी इजाजत देता है क्या? नहीं। अगर इस्लाम इसकी इजाजत नहीं देता इसका है कि वो दूसरे के धर्म का सम्मान करने में यकीन नहीं रखता। जो धर्म दूसरे के धर्म के सम्मान में यकीन नहीं करता वो सदभाव कैसे फैला सकता है? 'इस्लाम खतरे में है' का नारा बुलंद करके बात बात में हथियार उठा लेने वाले इस्लाम ने क्या कभी मानवता को खतरे से उबारने के लिए तलवार उठाई है। आख़िर स्वयं मुहम्मद जी ने मक्का के मंदिर की 360 मूर्तियां तोड़ीं थी ? भारत में अधिकांश मुस्लिम शासन काल में हिंदुओं के साथ ज़ुल्म हुए थे ? मंदिर ध्वस्त करने वाले और मूर्तियां तोड़ने वाले को बुत-शिकन कह कर सम्मान दिया जाता है इस्लाम में। जिस धर्म का सार यूँ हो वो मानवता की रक्षा के लिए हथियार उठा ही नहीं सकता। वो तो सिर्फ आतंक स्थापित करने के लिए तलवार उठा सकता है। कवि इक़बाल ने 'शिक़वा' और 'जवाबी शिक़वा' में इस्लाम की इन खूबियों का गर्व के साथ उल्लेख करते हैं। एक बाबरी मस्ज़िद के खंडर को गिराए जाने पर लोगो ने हाय तौबा मचाके सवाल दागे, पर कभी भी वो उन लाखो मंदिरो को गिराए जाने पर मौन साध लेते हैं जिन्हे अतताइयों ने इस्लाम के नाम पर गिराया था।