Thursday 21 May 2015

अधूरे फ़साने की मुक़म्मल नज़्म --सुधीर मौर्य


एक  अफ़साना
जो मुक़म्मल न हो सका।
ओ रात की चांदनी
तुम कहती हो 
मै नज़्म लिखुँ उस पर।
ओ सुबह की धूप 
क्या नाचना चाहती हो तुम
उस अधूरे फ़साने की
मुक़म्मल नज़्म पर।  


--सुधीर मौर्य

5 comments: