Sunday 11 November 2012

कही दीप जले कहीं दिल...



सुधीर मौर्य 'सुधीर'

हाँ दिवाली तो आ गई चारो तरफ खुशियाँ, दीपमालाएं पटाखों के शोर. हर कोई उल्लासित नज़र आ रहा है, हो भी क्यों नए पर्व है ही इस के लिए. पर इन सब खुशियोंओ को मानाने का हक किसी से छीन लिया गया है क्योंकि वो मज्बूर है, गरीब है, एक लड़की है और इस से भी कहीं ज्यादा शायद वो वहां पैदा हुई जहाँ अलाप्संख्य्खों की  आवाज़ सुनी नहीं जाती. हाँ में बात कर रहा हूँ रिंकल की, उस मजलूम की जिस से उसकी खुशिया सरेआम छीन ली गई. और उसे भेज दिया गया एक इसे कैदखाने में जहाँ से उसकी रिहाई अब तक न हो सकी. रिंकल मजबूर हे मियां मित्ठो की जेल में वो तमाम यातनाये भोगने केलिए जिनके बारे में सिर्फ सुन कर ही हमें पसीना आ जाता है, दिल दहल जाता है. क्या उसके लिए हमारा कोई उत्तर्दयित्वा नहीं,क्या हम उसके बारे में आवाज़ भी नहीं उठा सकते. क्या हमारी दिवाली तब सार्थक है जब की एक मजलूम को जबरन कैद करके उसे शारीरिक और मानसिक यातनाये लगातार दी जा रही हैं.  इन यात्नायो में किसी लड़की के लिए सबसे बुरी यातना sexual एब्यूज भी शामिल है.

में आप सब से आवाहन करता हु आओ हम सब मिलकर आवाज़ बुलंद करे इस गरीब और मजबूर लड़की के लिए.मैंने सुना हे की कलम में बहुत ताक़त होती है. तो फिर आओ सब मिल कर एक एसा आन्दोलन खड़ा करे जिसके तूफ़ान से मीरपुर मेठेलो की उस हवेली की दीवारे भरभरा के गिर पड़े और हम उस मजलूम रिंकल कुमारी को आज़ाद होते हुए देख सके.