Sunday 31 May 2015

प्रेम, समर्पण और पूजा - सुधीर मौर्य

उचक  के
चूम कर माथा मेरा 
यूँ निहाल हो गई  वो 
मानो चूम लिया हो उसने आसमान। 

मेरी बाहों में 
उसने बिखेर दिया 
अपनी  देह का रोम रोम 
मानो  मेरी बाहों में 
बिखर कर 
उसे सिमटने की कोई हसरत न रही। 

बड़ी हसरत से 
उसने देखा था आँखों में मेरी 
मानो तपती राह  में 
उसे कोई शज़र मिल गया हो। 

जिस घडी उसने कर दिया 
प्रेम में समर्पण  
उस घडी  
मैं उसका पुजारी हो गया। 
--सुधीर मौर्य  


No comments:

Post a Comment