लौटा लाऊंगा
मैं
तुम्हे,
मेरे सर्वग्रासी
प्रेम
गंगा की लहरो
को बाँध लूंगा
तुम्हारे दिए
रुमाल के कोने
में
कर दूंगा उस
जल से अभिषेक
प्रेम के प्रतीक
योनि और शिवलिंग
का
बांध दूंगा
मंदिर के किनारे
तुम्हे मागने
वाला
मन्नत का धागा
देखूंगा राह
अपनी दोनों आँखों
से
गाँव आने वाले
हर रास्ते का
तोड़ दूंगा
मज़हब की रवायत
करूँगा तुम्हे
प्रेम
तुम्हारा नाम
जाने बिना
लोग पुकारेंगे
हमें
सलमा और कृष्ण
के नाम से
लौट आओ
ओ मेरे
सर्वग्रासी प्रेम।
--सुधीर मौर्य
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (06-05-2015) को बावरे लिखने से पहले कलम पत्थर पर घिसने चले जाते हैं; चर्चा मंच 1967 पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
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बहुत बहुत आभार।
Deletethanks..
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