Wednesday, 27 May 2015

अमलतास के फूल ( उपन्यास) - सुधीर मौर्य

.................यक़ीनन सब कुछ मुझे बहुत जल्दी करना था, क्यों की में जनता था की कठमुल्ला वर्ग अपनी हरकत से बाज़ नहीं आयेगा, और यहाँ निहचित रूप से राछसी तांडव करने में कोई कोर कसर बाकि नहीं रखेगा और में यह भी जनता था की इनके असुरी नाच को सिर्फ सतर्कता से ही रोका जा सकता था |
शाम होते ही मैंने माँ से चाय पिने की इच्छा जाहिर की, में चाय पि कर युसूफ के घर जाना चाहता था | माता जी चाय बना कर ले ई और में चाय पिटे हुए भी सिर्फ ६ दिसम्बर के बारे में ही सोच रहा था | चाय पि कर में घर से निकल पड़ा, पैदल टहलते हुए में युसूफ के घर की तरफ जा रहा था, तबी सामने से मैंने देखा की संदीप जीप ड्रिवे करता आ रहा है, वह भी शायद मुस्लिम महोलों की तरफ से आ रहा था, उसके बगल में एक लड़की बैठी थी, लड़की के दुधिया जिस्म पर लाल टी-शर्ट व् कलि जेंस थी , मैंने उस लड़की को यक़ीनन पहचान लिया था वह ऋतू थी उसे देख कर मेरे दिल पर तिव्र्र झटका लगा था | मुझे ऐसा लगा की मेरा ह्रदये बिठा जा रहा हो, दिल इतनी तिव्र्र गति से धडकने लगा था की मुझे लगा की वह सीने को फाड़ कर बहार निकल जायेगा, आँखों में अंशु की बुँदे झिलमिलाने लगी थी | मेरे कदम डगमगाने लगे थे, में लरजते क़दमों से युसूफ के घर की तरफ बड़ा |
तुरंत देखे गए द्रश्य को में झटका देकर जेहन से निकाल देना चाहता था, में जनता था यह सब इतना आसान नहीं है, ऋतू संदीप के साथ यक़ीनन ये अस्चर्या की बात थी |
खेर में जैसे तैसे युसूफ के घर पहुंचा, युसूफ घर पर ही था बड़ी गर्मजोशी के साथ उसने मेरा इस्तेकबाल किया | में उसके साथ बैठक में बैठ गया |
मेरा स्वागत उसकी अम्मी ने गर्म चाय और गोभी के पकोड़े से किया था | मेरे द्वारा पकोड़ों की तारीफ किये जाने पर वोह बोली थी अरे ये तोह राबिया ने बनाये है |
में अभी कुछ बोलना ही चाहता था की बैठक में राबिया ने एंट्री मरी थी | वोह युसूफ की बड़ी बहन थी, कोई दो या तीन साल बड़ी होगी | और इतनी ही वोह मुझसे बड़ी होगी, क्योंकि मेरी और युसूफ की उम्र में एक -दो महीने का अंतर था | कौन बड़ा था कौन छोटा ये पता नहीं |
कब आए सूरज और कैसे हो..? राबिया ने पूछा था | उस से उम्र में छोटा होने के कारन वोह मुझे मेरे नाम से ही बुलाती थी | हाँ ये और बात है में उससे सीधी बात करता था | न ही उसका नाम लेता और न ही दीदी, बाज़ी, या आपा आदि सम्भोधन ही लगता था |


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…………….में काफी देर वहां बैठा रहा फिर में वहां से विदा लेकर चल दिया, तन्वी मुझे बहार तक छोड़ने आई | में जब चलने लगा तोह उसने कहां-
''बहुत खुश होंगे आप ''
मैंने कहा - ''क्यूँ''
''दीदी आने वाली है ना |''
और में उत्तर में सिर्फ मुस्कुरा दिया था |
उसने कहा - ''आपने जवाब नहीं दिया |''
मैंने कहा - ''ये भी कोई पूछने वाली बात है |''
वह बोली - ''क्या मतलब''
''मतलब'' - में उसकी तरफ देखते हुए बोला - ''हद से जयादा ख़ुशी हो रही है, आखिर में ऋतू से पुरे १-२ साल बाद मिलूँगा |
बदले में उसने पलके झुका ली | मैंने कहा तन्वी में जा रहा हु माता जी राह देख रही होंगी | तन्वी अनमने मन से बोली, जा रहे है तोह में रोक कैसे सकती हूँ |
मैंने तन्वी की बात का कोई जवाब नहीं दिया, शयेद मेरे पास उसकी किसी बात का जवाब था भी नहीं, मैंने के नज़र उसके मासूम चेहरे पर डाली और फिर पलट कर चल दिया |
न जाने किस भावना से वशीभूत होकर मैंने पलट कर फिर तन्वी की तरफ देखा और मैंने पाया की वोह तोह पागलों की तहर मुझे देख रही है | पर अचानक मुझ पर द्रद्ता सवार हो गयी थी मैंने झटक कर अपने मन से तन्वी का ख़याल निकला और तिव्र्र क़दमों से अपने घर की तरफ चल दिया |
घर पहुँचते-पहुँचते मुझे शाम हो गयी, रास्ते में एक-दो लोग मिल गए जिनसे बात करने में कुछ समय लग गया था | घर पंहुंच कर कर मैंने भोजन किया और फिर बिस्तर के सुपुर्द कर दिया | पर यक़ीनन यह अभी सोने का वक़्त नहीं था, लखनऊ में तो में देर रात तक जगा करता था |
संजीवन लाल, राशी, संदीप, ऋतू, और तन्वी यह सब मेरे जेहन में बारी-बारी से दुस्तक देने लगे थे, मेरे मन की उलझन बदने लगी पर मेरे लिए ये उलझन अधिक अर्थ नहीं रखती थी क्योंकि में जनता था की इस तरह की उलझन से में कभी भी निपट सकता था | मेरे लिए उलझन का कारन था तो आने वाली तारिख ६ दिसम्बर १९९२ |
एक ताराग कारसेवकों व् रामसेवकों का धर्म के लिए जीवन उत्सर्ग कि पर्वाह न करते हुए सत्य के लिए मंदिर निर्माण की संकल्पना और दूसरी तरफ चरों तरफ कट्टरपंथी मुस्लिम बहुल छेत्र से घिरा मेरा गाँव और जिसमें से आधे से अधिक आबादी कट्टरपंथी मुसलमानों की |


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……………..वापस बात करने का सिलसिला उसी ने सुरु किया था | कुछ बातें मेरी पदाई के बारे में और कुछ उसने मेरे घर के बारे में पूछी थी | बहार से युसूफ और कुछ और आवांजे हल्की-हल्की सुने दे रही थी, राबिया उठ कर उन्हें खिड़की से देख कर ई थी | वापस मेरे सामने बैठते हुए उसने एक आप्रत्याशित swaal पूछा था |
सूरज - वहां लखनऊ में कोई गर्ल फ्रेंड बने या नहीं | मैंने उसके चेहरे की तरफ देखा था उससे आँख मिलते ही आँख झुका ली थी | मुझे थोड़ी शरारत सूझी थी |
मैंने कहा - राबिया - (यकीन करो जहाँ तक मुझे याद है जीस्त में पहली बार मैंने उसे उसके नाम से पुकारा था) ''क्या तुम्हारा कोई बॉय फ्रेंड है कानपूर में''
उसने इनकार में सर हिलाया था
''तो यहाँ गाँव में'' - मैंने वापस शरारत की थी |
उसने न कोई इशारा किया था और न ही लब से कुछ बोली थी |
में वापस पूछता इससे पहले युसूफ कमरे में आ गया था और में चुप हो गया था |
राबिया भी बात का रुख बदले हुए बोली थी इस साल तुम्हारे बी. टेक के तीन साल पुरे हो रहे है ना |
- हां राबिया में चाय का कप खली करके मेज पर रखते हुए बोला था | मेरे होंठो से 'राबिया' निकलते ही युसूफ ने मेरी तरफ देखा था | शयेद इस से पहले कभी भी उसने मेरे होंठो से अपनी बहन का नाम नहीं सुना था |
मैंने चलने के लिए युसूफ राबिया और उनकी मम्मी से इज़ाज़त मांगी थी | तभी फ़ोन की घंटी बाज़ी थी और युसूफ उसमें व्यस्त हो गया था | मुझे घर के बहार राबिया छोड़ने आई थी | और वोह मेरे साथ साथ चलने लगी थी, मैंने मना नहीं किया था |
चलते-चलते मैंने पूछा था राबिया आपने मेरी बात का जवाब नहीं दिया |
''कौन सी बात..?''
वोह अपने बाल सावरते हुए बोली थी बाल सवारने के टाइम उसकी कोहनी मेरे शरीर से छु गयी थी, उस वक़्त मेरे शरीर की हरारत यक़ीनन बढ गयी थी | हाँ उसने क्या फील किया था में उस दिन ये जान ना सका था |
राबिया, ''क्या तुम्हारा कोई बोर फ्रेंड है |'' अबकी बार मैंने स्पस्ट पूछा था |
शयेद हां, शयेद ना.....
ये कैसा जवाब है राबिया ?
मीन्स, में उसे अपना बॉय फ्रेंड मानती हू पर वोह खुद को मेरा बॉय फ्रेंड मानता है या नहीं में यह नहीं जानती |
में हसंते हुए बोला था, ''मतलब एकतरफा मुहब्बत |''
शायद , वोह थोडा उदास होते हुए बोली थी |
चलते-चलते गली का नुक्कड़ आ गया था और वोह वन्ही कड़ी हो गयी थी | में समझा गया था वो वहां से घर वापस जाना चाहती है |
मैंने हाथ जोड़ कर उसका अभिवादन किया था | हाँ चलते-चलते उसने पूछा था और आपकी गर्ल फ्रेंड..?
''आप जैसी ही हालत है '' में मुस्कुराया था
और वोह भी मुस्कुराते हुए वापस चल दी थी और में उसे ओझल होने तक देखता रहा था |



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............पर दो-तीन दिनों में मेरे हालात बढ से बत्तर हो गए थे | ज़िन्दगी ने फरेब देने चालू कर दिए थे | एक तरफ सांप्रदायिक दंगों की आहट से सुलगता मेरा छोटा सा क़स्बा जो क़स्बा कम गाँव अधिक था | और दूसरी तरफ मेरे बचपन की चाहत मेरी ऋतू ने मेरा दिल तोड़ दिया था | उस दिन संदीप के साथ जीप में बैठी हुई लड़की ऋतू ही थी |और उसने मेरे कोमल मन को बड़ी बेदर्दी से कुचलते हुए उसने मुझे बताया था, ''वोह मुझे नहीं बल्कि संदीप से प्यार करती थी |
मैंने जब उसे संदीप के बारे में बताने की कोशिश की थी तो उसने मुझे सख्ती से अपनी औकात में रहने की हिदायत दी थी, साथ ही ताकीद की थी,में उसे भूल जाऊ | हां उस दिन इस घटना या यूँ कहिये दुर्घटना | सच पुचो तो मेरे लिए ये दुर्घटना ही थी, हां तो में बता रहा था उस दुर्घटना वाले दिन ऋतू के साथ उसकी छोटी बहन तन्वी भी थी जो इस हादसे से कुछ चकित नज़र आ रही थी | उस वक़्त वहां संदीप आ गया था और ऋतू उसके बगल की सीट और तन्वी पीछे की सीट पर बैठ कर वहां से रुखसत हो गयी थी | हां जाते वक़्त भी ऋतू ने मुझे पलट कर नहीं देखा था | अलबत्ता तन्वी मुझे जरूर देखती रही थी | ज़िन्दगी के इस फरेब से में हेरान रह गया था | जिसे बचपन से चाहा, जिसे होश सँभालते ही जाना था, जिसने कभी मेरी दोस्ती का दम भरा था, जिसने कभी अपने खतों में अपने नाम के आगे मेरा सरनेम को लगाया था | जिसने कभी हमारे दांपत्य से होने वाले बच्चों के नाम सोचे थे, जिसने कभी मेरे लबों को अपने नमकीन लबो से तर-बतर किया था, जिसने कभी कानपूर के चिड़िया घर में मेरे पैरों को छुआ था, जिसने कभी कानपूर के गुरुदेव पैलेस में 'परदेश' फिल्म के देखने के वक़्त अपने हाथों से मेरे हाथ को अपने कधोर वक्चों पर रख लिया था, जिसने कभी रात के अँधेरे में मेरे सामने शारीरिक समर्पण किया था, जिसने कभी ................., जिसने कभी............., जिसने कभी........................



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………………आज मैंने दूध में मक्के की रोटी मीस कर खायी थी, फिर पानी पि कर उपर के कमरे में चला गया था, यहाँ मैंने छोटी सी ल्य्ब्रेरी बना राखी थी, जहाँ कई विषयों पर मैंने पुस्तके एक्कठी की थी | जैसे साहित्य, दर्शन, इतिहास और कई महापुरुषों की आत्मकथाए | आज मेरे हाथ में जो किताब ई थी सावरकर लिखित ''मोपला''
पुस्तक पड़ते पड़ते रात ढल चुकी थी, तमाम तारे आसमान में रौशनी बिखेर रहे थे, में किताब हाथ में लिए कमरे से निकाल कर खुली छत पर आ गया था और टहलते हुए उसके एक किनारे तक पहुंचा था जहाँ से सड़क नज़र अति थी |
में पलट कर कमरे की तरफ चला ही था की मुझे यु लगा की सड़क पर एक साया नुमाया हुआ है | मैंने फ़ौरन पलट कर वापस सड़क की तरफ निहारा था | चाँद भी आज आस्मां में मुकम्मल ना था सो चांदनी में इतनी तेज़ी ना थी | की में उस साये को पहचान पता, हां इतना जरूर था की वोह कोई लड़की थी | वोह सड़क के किनारे-किनारे चल रही थी, चाल में कुछ लडखडाहट थी और उसके बाल बिखरे हुए थे कपड़ों का रंग लाख नज़र गड़ाने के बाद भी समझ में नहीं आया था | धीरे- धीरे मेरी आँखों से उसकी दूरी बड़ रही थी, न जाने क्यूँ मुझे लगा की में उसको पहचानता हूँ, उसे जानता हूँ | उसकी पीठ मेरे जानिब थी अगर चेहरा मेरे सामने होता तो में यकीन से कहता हूँ इतनी कम रौशनी में भी में उसको पहचान लेता था |
धीरे-धीरे वो मेरी आँखों से दूर हो रही थी और आखिर में एक बिंदु की शक्ल लेकर विलुप्त हो गयी थी, मेरी नज़रों से ओझल हो गयी थी |
में टहलते हुए वापस कमरे में आ गया था और सावरकर की लेखनी का जादू मोपला में उलझ गया था |
सुबह जब उदा तोह दिन चढ़ आया था सूरज देवता यानि सूरज मुझे अपने ताप की तपिश से गर्म करने लगे थे | मैंने सूर्य नारायण की गर्मी से आँख खोली तो पाया सिरहाने स्टूल पर लालटेन अब तक जल रही थी और मेरे सीने पर मोपला पुस्तक का बोझ था न जाने क्यूँ मुझे लगा की इस बोझ को हटाना इतना आसान नहीं है जरूरत सतत शंगार्ष की जरूरत है | मुझे इस वक़्त इस बात का अहसास न था मेरी ज़िन्दगी भी आने वाले दिनों में ऐसी ही कहानी से दो-चार होने वाली है |
अगले दिन सुबह सवेरे ही घर से निकल पड़ा था, माँ को इतना बोल कर में जल्दी आ जाऊंगा निकल पड़ा था में गाँव की आवारगी पर | घर से निकल कर ज्यूँ ही में सड़क पर आया था मेरे दिमाग में छनाका हुआ था रात की वोह लड़की कौन थी जिसका साया मैंने रात चाँद की रौशनी में देखा था | कौन थी वोह..? और इतनी रात को वो क्यूँ सड़क पर थी जबकि उस वक़्त कोई पंची भी मौजूद न थे अपने उपर मुझे कुछ गुस्सा आया था आखिर क्यूँ मैंने उस वक़्त घडी देख कर एक्जेक्ट समय का पता नहीं लगाया था |
में खुद भी न जान सका था की मेरे कदम खुद-ब-खुद वहां कैसे पहुँच गए थे ये ऋतू का घर था और घर के दरवाज्व पर कड़ी ऋतू नहीं तन्वी थी वोह कुछ संजीदा थी मुझे देख कर भी वोह कुछ संजीदा ही रही, अमुमन ऐसा नहीं होता था, बचपन से मुझे जब भी देखती थी चहक पड़ती थी, आज उसने मुझे घर आने को भी नहीं कहा था, ख़ामोशी को उसने ही तोडा था, बहुत ही धीमी आवाज़ में बोली थी जबकि में जनता था की वो काफी तेज़ आवाज़ में बात करती थी, जिसकी वजह से उसने कई बार अपनी मम्मी पापा से दन्त भी खायी थी
सूरज- ''कल रात बहुत भारी थी'' उसने इतना ही बोला था और मैंने दर से एक पल के लिए अपनी आँखे बंद कर ली थी कंही वोह रात की लड़की ऋतू तो नहीं थी |
अगले छण वो बोली थी - '' कल संदीप ने ऋतू का सब कुछ लूट लिया अपने दोस्त अफरोज के साथ मिल कर''
क्या बोल रही हो तन्वी, क्या हुआ है ऋतू के साथ..?
तन्वी ने काफी विस्तार से बताई थी कल रात की घटना जिन्हें में दिल सख्त करके सुनता रहा था | मेरे दिल ने हज़ार आंसूं रोये थे पर मेरी आँखें मेरे से भी ज्यादा कड़ोर हो गयी थी और उन्होंने एक भी आंसू नहीं उगला था ऋतू से लाख मिलने का मन होने के बाद भी मैंने तन्वी को यह नहीं बोला था की में ऋतू से मिलना चाहता था |
तन्वी को इतना बोल कर की वो ऋतू का ध्यान रखे तेज़ क़दमों से निकल गया था बिना एक बार भी पलट कर ये देखे बिना तन्वी का हाल क्या है |



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........अपने बालों को सहलाते उन नर्म हाथों को पकड़ कर मैंने उनमें वही पमप्लेट पकड़ा दिया था जो आज दोपहर मकतब के सामने अल्हड हवाओं ने मेरे हवाले kiya था अँधेरा गहरा हो चूका था सो राबिया कोशिश के बाद भी पद न सकी |सो मैंने उसे मंदिर से दिया लेन को कहा पर वो गयी न थी उसकी दुविधा को में समझ गया था तभी मैंने उससे कहा था, राबिया स्थान किसी भी धर्म का हो कभी भी पवित्र ह्रदये के लोगों से अपवित्र नहीं होता वो हमेशा इअसे लोगों के इंतज़ार में रहता है मेरी बात सुन कर वो आगे बड़ी थी उसका पैर मंदिर की दहलीज़ को लाघने वाला ही था की वोह अचानक ठहर गयी थी मैंने देखा था उसने झुक कर हथेली से दहलीज़ को छु कर अपमे माथे से लगा लिया था जब वोह मंदिर से दिया लेकर वापस आ रही थी तो न जाने मुझे क्यूँ लगा की उस दिए की रौशनी बाद चुकी है शायेद ऐसा दो रोशनियाँ मिलने से हुआ होगा | एक मंदिर के पवित्र दिए की रौशनी और दूसरी राबिया के पवित्र ह्रदये से फूटती रौशनी |
राबिया ने दिया मेरे हाथ में पकड़ा कर उस पमप्लेट को पड़ा था बहुत ही मधिम आवाज़ में | जिसे सुन कर मेरे रोये खड़े हो गया था मैंने देखा था राबिया का बदन भी लरज रहा था यह एक ऐसा पत्रक था जो मुस्लिम युवको को गैर मुस्लिम युवतियों को अपने छद्म प्रेम में फ़साने की प्रेरणा दे रहा था, इसके लिए बकायेदा उन युवको के लिए पुरूस्कार की घोषण थी जो ऐसा कर पाएंगा | उस पमप्लेट में इस कार्य को बेहद पाक और जेहाद का एक रूप बताया गया था
ये कैसा जेहाद..? मैंने राबिया की तरफ देखते हुए बोला था जो मासूम लड़कियों का जीवन बर्बाद कर दे
राबिया चुप रही थी शायेद इस लिए की उसके पास इसका कोई जवाब था ही नहीं |
मैंने अंदाजा लगाया था स्थिति की भयानकता का में समझ गया था ऋतू इसी जेहाद जा शिकार हुई थी



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.............और यु बहुत देर तक हम साथ-साथ बैठे रहे इधेर-उधेर की बातें होती रही | मैंने महसूस किया की संजीवन लाल में इस समय खिशी की लहर दौड़ रही है पर में उसके लिए ह्रद्ये से चिंतित था, हां यह बात मैंने उस पर प्रकट नहीं होने दी थी फिर हम वहां से उठ कर चले आये थे रस्ते में टहलते-टहलते में अपने घर पहुंचा, संजीवन लाल का घर रस्ते में ही पड़ता था वह ख़ुशी मन से अपने घर चला गया था और जाते जाये यह कह गया था की शाम को मुझ से मिलने आयेगा
संजीवन लाल मेरे बचपन का दोस्त, निहचित रूप से आज भयंकर परेशानी में फंसने जा रहा था वह पागल जिसे पानी ख़ुशी समझ रहा था नहीं जनता था यह ख़ुशी उसके लिए मुसीबतों का सेलाब लेन वाली है मेरे संजीवन लाल से अपार स्नेह था, इस लिए उसके प्रति मेरा चिंतित होना स्वाभाविक था
परम अय्याश ठाकुर संदीप सिंह की ख़ूबसूरत बहन राशी जो एक-आध साल पहले ही स्नातक होकर शहर से गाँव आई थी और संजीवन लाल जो ठाकुर संदीप सिंह के यहाँ एक घरेलु नौकर था वोह आज सुबह ही मुझे अपने और राशी के प्रेम सम्बंदों के बारे में ख़ुशी से बता रहा था, पर यक़ीनन में इससे खुश कम ही हुआ था मेरे खुश होने का कारन कुछ और नहीं था वरन में संजीवन लाल के लिए चिंतित था क्यूँ की में अच्छी तरह से संदीप के बारे में जानता था वह निहयेत ही क्रूर और बदमाश तरह का व्यक्ति था सच पुछो तो मुझे संजीवन लाल की जान की फ़िक्र होने लगी थी
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........उसी रात में अपनी महेंद्र डी.आई. जीप से कानपूर की तरफ चाल पड़ा था मकसद था राशी को अफरोज के इरादों से सावधान करना, में जनता था की राशी से मैंने आज तक मैंने कभी बात भी नहीं की थी | कानपूर रवाना होने से पहले में राबिया के घर गया था उसे बताने की में कानपूर जा रहा हूँ | उस वक़्त युसूफ घर न था चच्ची भी कंही गयी थी | हाँ राबिया के अब्बू को दो-तीन साल पहले ही जन्नतनशी हो चुके थे राबिया उस वक़्त घर पर अकेली थी |
जब मैंने उस वक़्त उस से कहा की में कानपूर जा रहा हूँ उसने मेरा हाथ पकड कर पलंग पर बिठा लिया था और खुद मेरे बगल में बैठ गयी थी मेरे हाथ को अपने हाथ में लेकर वो बोली थी |
सूरज- ऋतू के साथ जो हुआ बहुत बुरा हुआ
में कुछ बोला न था
वोह उसी तरह मेरे हाथ को पकडे हुए बोली थी आप तोह उसे चाहते थे बहुत दुःख हुआ होगा ना
मैंने हां में सर हिलाया था और कहा था,मेरी चाहत एक तरफ़ा थी राबिया |
मैंने महसूस किया था उस वक़्त उसके हाथों की पकड़ मेरे हाथों पर थोडा सख्त हो गयी थी
कानपूर क्यूँ जा रहे हो, उसने वापस सवाल किया था
उत्तर में मैंने पूरी तफ्शील बयाँ कर दी थी, जिसे वो शांति से सुनती रही थी | फिर बोली में अल्लाह से दुआ मागुंगी वो तुम्हे कामयाब करे | 


उपन्यास 'अमलतास के फूल' से 
- सुधीर मौर्य

6 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (29-05-2015) को "जय माँ गंगे ..." {चर्चा अंक- 1990} पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

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  2. कुछ अंश पढ़े.....रोचक दास्ताँ की और अग्रसर..बधाई !!

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