Wednesday 28 January 2015
Monday 26 January 2015
नपुंसक (लघुकथा) - सुधीर मौर्य
'देखो तुम्हारे अतीत को
जानते हुए भी
मैने तुमसे शादी
की।' पति
सुहागरात को पहले
लैंगिक संसर्ग के बाद
से बोला।
पत्नी
पत्नी ने पति
की बात सुनकर
अपनी झुंकी आँखे
और झुंकी दी।
'कहो अब कौन
महान है मैं
या वो तुम्हारा
प्रेमी ?' पति वापस
तनिक घमंड से
बोला।
पत्नी अब भी
वैसे ही बैठी
रही। मूक और
नत मुख।
'कहीं वो नपुंसक
तो नहीं था?'
पति, पत्नी के
मन में उसके
प्रेमी के लिए
घृणा का भाव
पैदा करने की
गर्ज़ से बोला।
पति की बात
सुनकर पत्नी को
वो दिन याद
आ गए जब
वो अपने प्रेमी
के साथ प्रेम
गीत गाती थी।
उसका प्रेमी उसे बेहद
प्रेम करता था कई
बार वो उसके
साथ एक ही
चादर में लेटा
था पर कभी
चुम्बन आदि से
आगे न बढ़ा।
और फिर एक
रात जब उसने खुद
काम के वश में
होकर अपने प्रेमी
से कहा 'उसकी
इच्छा पूरी करो'
तभी उसने उसके
साथ दैहिक सम्बन्ध
बनाया।
पत्नी को चुप
देख पति वापस
बोला - 'क्या वो
वाक़ई नपुंसक था।
'
पत्नी का मन
किया वो कह
दे अपने पति
से - नपुंसक वो
नहीं था जो
प्रेम की पवित्रता
निभाता रहा, जो
हर राह में
मेरे साथ में
खड़ा रहा। मेरी
पढ़ाई का खर्च
उठता रहा। मेरे
एक बार कहने
पर चुपचाप मेरी
ज़िन्दगी से दूर
हो गया। और
तुम्हारे मांगे के दहेज़
की राशि उसने
दी अपने सिद्धांतो
के विरुद्ध जाके। अरे
नपुंसक तो तुम
हो जो अच्छी
खासी नौकरी करते
हुए भी बिना
दहेज़ के शादी
को तयार नहीं
हुए।
पत्नी अभी सोच
ही रही थी
कि पति ने
खींच कर वापस
उससे लैंगिक संसर्ग
करने लगा और
पत्नी चुपचाप एक
'नपुंसक' के सीने
से चिपट गई।
--सुधीर मौर्य
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