मेरी डायरी
के पन्ने
तेरे नाम से
सुखर्रू हैं
तेरे दिए हुए
गुलाब की स्याही से।
दरीचे से आती हवा
उड़ा लाती है
तेरा दुपट्टा
और नाकाम कोशिस करती है
उससे डायरी के पन्नो को
ढकने की
तुम नज़र आती हो छत पे
मेरे जानिब मुस्कराते हुए
उड़ा देती हो
अपना हिज़ाब
तितली की तरह
पंख फैला के
सिमट जाती हो
कोने में
अपने अब्बू की आहट से
छुपाके रखती हो खत
मेरी डायरी में
अपने दुपट्टे के सहारे
मेरी प्रेयसी से
मेरी दुल्हन बनने की
ख्वाहिश लिए।
--सुधीर मौर्य
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 14 - 05 - 2015 को चर्चा मंच की चर्चा - 1975 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
bahut abhar
Deletesundar ahsaso se sazi rachna
ReplyDeletebahut aabhar aparna ji..
Deleteबहुत अद्भुत अहसास...सुन्दर प्रस्तुति .पोस्ट दिल को छू गयी.......
ReplyDeletebahut bahut aabhar sir ji
Deleteसुंदर
ReplyDeletebahut aabhar
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