कल सवेरे ख्वाब में
उन्होंने पूछी मुझ से
सत्य प्रेम की परिभाषा
कुछ पल
मौन रह गया में
उनके इस सवाल पर
जो चले गए थे
मुझे छोड़ कर कभी
रीति-रिवाजों की
जंजीर के आगे
विवश होकर
मैंने निहारा था उन्हें
वही केस,
जो फूलों के बिना मह्कतें हैं.
वही पेशानी जो
रात की कालिमा को
बिना दीपक के
रोशन कर दे.
वही सुरमई आँखें
वही मदिर अधर
और वही
खिलता योवन.
मैंने भी सवाल किया
मुझसे बिचड़ कर भी
केसे रह पाए
तुम इतना सुवासित
वो बोलीं
मैंने तो आत्मा में
धारण किया है तुम्हे
सो हर पल
तुम्हारा लम्स,
तुम्हारा एहसास
पल्लवित करता है मुझे
सजाता और सवारता है मुझे
में हस कर बोला
प्रिये
जो तुमने अपनी गोद में
मेरी आत्मा के अंश को
जन्म दिया
ओ मेरे बच्चे की माँ !
मेरी प्रियतमा !
यही है सत्य प्रेम
यही है अदेहिक प्रेम.
जब आँख खुली मेरी
मैंने महसूस किया था
अपने बदन पर
उसके केसरिय बदन की
गंध को....
सुधीर मौर्या 'सुधीर'
गंज जलालाबाद, उन्नाव
२०९८६९
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