Wednesday 11 July 2012

ख़त और लालटेन की रौशनी...


आम और महुए से
झड के आती 
हवाओं ने
जब कभी 
जिन्दगी के वर्क पलते...
...मरुस्थल में
कटहल के पेड़ों से,
उसे 
बबूल के कांटे
चुनते पाया
वो बबूल के कांटे 
जो उग आये थे
उस राह के दोनों तरफ
के मखमली पेड़ों पे
जिनके बीज 
बोये थे तुमने
अपने फरेब के साथ
मेरे जले खतों की
 उर्वरा ड़ाल के 
जो कभी लिखे थे 
मैंने लालटेन की रौशनी में
वफ़ा की स्याही से....

रात के सन्नाटें को चीरती
अर्ध चंद्रमा की
नीमरोशनी में  
अब भी आती है
आवाजे 
उन मखमली बदन
पेड़ों की
जो मुझे
मेरे ख्वाबों से
जगा देती हैं
और लगाती है
मेरे बदन पे 
वो लहू
जो रिश्ता है
उनके उन ज़ख्मो से
जो मिले हैं
उन्हें
मेरी वफ़ा और तेरे फरेब 
के आलिंगन से...

यकीन कर 
तुझे तेरी दुनिया में
हँसते पा
वो सदांए बस
मुझे जगती हैं
और सजा देती हैं मुझे
तुझे पहचान न पाने की
हर रोज़, हर दिन, हर घडी...

सुधीर मौर्या 'सुधीर'
गंज जलालाबाद, उन्नाव-२०९८६९

10 comments:

  1. कलम से
    लालटेन की रौशनी में लिखे ख़त



    चिट्ठी आंसू से भीग गई , लालटेन से तप्त हुई फिर ।

    समय सड़ाता गया खाद सा, उर्वरा शक्ति तुमने पाई ।

    कर गए किन्तु तुम अधमाई ।

    यह कसक मौत सी रास आई ।

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  2. बहुत ही बढिया ।

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  3. लालटेन की रौशनी, बीते युग की बात।
    अब चिठिया कैसे लिखे, मोबाइल है हाथ।।

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  4. दिगम्बर नासवा has left a new comment on your post "ख़त और लालटेन की रौशनी...":

    किसी बेवफा कों पहचान न पाने की इतनी बड़ी सजा ...
    उम्दा रचना है ...

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  5. बहुत खूब |
    आशा

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  6. http://www.facebook.com/photo.php?fbid=481001685303475&set=a.395581907178787.82937.146742808729366&type=1&theater

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