झड के आती
हवाओं ने
जब कभी
जिन्दगी के वर्क पलते...
...मरुस्थल में
कटहल के पेड़ों से,
उसे
बबूल के कांटे
चुनते पाया
वो बबूल के कांटे
जो उग आये थे
उस राह के दोनों तरफ
के मखमली पेड़ों पे
जिनके बीज
बोये थे तुमने
अपने फरेब के साथ
मेरे जले खतों की
उर्वरा ड़ाल के
जो कभी लिखे थे
मैंने लालटेन की रौशनी में
वफ़ा की स्याही से....
रात के सन्नाटें को चीरती
अर्ध चंद्रमा की
नीमरोशनी में
अब भी आती है
आवाजे
उन मखमली बदन
पेड़ों की
जो मुझे
मेरे ख्वाबों से
जगा देती हैं
और लगाती है
मेरे बदन पे
वो लहू
जो रिश्ता है
उनके उन ज़ख्मो से
जो मिले हैं
उन्हें
मेरी वफ़ा और तेरे फरेब
के आलिंगन से...
यकीन कर
तुझे तेरी दुनिया में
हँसते पा
वो सदांए बस
मुझे जगती हैं
और सजा देती हैं मुझे
तुझे पहचान न पाने की
हर रोज़, हर दिन, हर घडी...
सुधीर मौर्या 'सुधीर'
गंज जलालाबाद, उन्नाव-२०९८६९
सुंदर रचना...
ReplyDeletebahut badiya rachna..
ReplyDeleteकलम से
ReplyDeleteलालटेन की रौशनी में लिखे ख़त
चिट्ठी आंसू से भीग गई , लालटेन से तप्त हुई फिर ।
समय सड़ाता गया खाद सा, उर्वरा शक्ति तुमने पाई ।
कर गए किन्तु तुम अधमाई ।
यह कसक मौत सी रास आई ।
बहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteबहुत ही बढिया ।
ReplyDeleteलालटेन की रौशनी, बीते युग की बात।
ReplyDeleteअब चिठिया कैसे लिखे, मोबाइल है हाथ।।
दिगम्बर नासवा has left a new comment on your post "ख़त और लालटेन की रौशनी...":
ReplyDeleteकिसी बेवफा कों पहचान न पाने की इतनी बड़ी सजा ...
उम्दा रचना है ...
बहुत खूब |
ReplyDeleteआशा
http://www.facebook.com/photo.php?fbid=481001685303475&set=a.395581907178787.82937.146742808729366&type=1&theater
ReplyDeletehttp://www.facebook.com/photo.php?fbid=481001685303475&set=a.395581907178787.82937.146742808729366&type=1&theaterhttp://www.facebook.com/photo.php?fbid=481001685303475&set=a.395581907178787.82937.146742808729366&type=1&theater
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