Wednesday, 1 April 2015

नज़्म, अफ़साना और प्रेयसी - सुधीर मौर्य

कई बार सोचा मैने
मैं कोई नज़्म लिक्खूँ
तेरी एक इंच की
नाव सी आँखों पे
कई बार मैने कलम उठाई
तेरे लरज़ते होठों पर
कोई अफ़साना लिखने के लिए
और हर बार मैं नाकाम रहा
क्योंकि मैं जब भी
कुछ लिखता हूँ तुम पर
ओ मेरी प्रेयसि !
तुम्हारे स्तन, कमर, नितम्ब,जांघे
और थरथराती पिंडलियाँ
तारी रहती हैं
मेरे होशो हवास पर।

--सुधीर

2 comments:

  1. आपकी इस प्रस्तति का लिंक 02-04-2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 1936 में दिया जाएगा
    धन्यवाद

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