मैं ठुकरा सकता था
तुम्हारा प्रेम
ठीक वैसे ही
जैसे कभी अर्जुन ने
ठुकराया था
उर्वशी का प्रेम
ओ लड़की।
पर तूने प्रेम कहाँ किया था
तूने तो बनाया था
मुझे
आलम्बन अपने स्वार्थ का
कहो कैसे ठुकराता मै तुझे ?
जबकि तू प्रेम नहीं
चाहती थी ख़ुशी अपनी।
--सुधीर मौर्य
सार्थक प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (14-02-2015) को "आ गया ऋतुराज" (चर्चा अंक-1889) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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पाश्चात्य प्रेमदिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
Nice Article sir, Keep Going on... I am really impressed by read this. Thanks for sharing with us. Bank Jobs.
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