Wednesday, 2 December 2015

गुज़िश्ता प्रेयसी - सुधीर मौर्य

आज


कितनी उलझनो के बाद
कितने मोड मुडने के बाद
तूं मिली
चेहरे पे एक उदासी लिए
मै समेट लेना चाहता था
तुम्हारे गम का हर टुकडा
उस रूमाल मे
जिससे पोछे थे तुमने
जाने कितनी बार
मेरे चेहरे से दुखो के बादल
मेरी दुखनी !
तुमने तो प्यार मे
हदे लाघीं थी
राह दी थी कभी
सांप को अनछुऐ बिल मे घुसने की
और उतार दिया मैने जहर
तुम्हारी देह मे अपनी देह का

मेरी प्रेयसी !
यही प्रायश्चित है मेरा
तुम रहोगी सदा प्रेयसी 
मेरी रूह की.
--सुधीर मौर्य

2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (04-12-2015) को "कौन से शब्द चाहियें" (चर्चा अंक- 2180) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी सर बहुत - बहुत आभार।

      Delete