Thursday 17 August 2017

छोटी अम्मा की बेटी (कहानी) - सुधीर मौर्य

भाग - १ 


मेरे पिता ज़मीदार नहीं थे पर उनका रुतबा किसी ज़मीदार से कम नहीं था। उनका रुतबा होता भी कैसे कम वो एक ज़मीदार के बेटे और ज़मीदार भाई थे। मेरे पिता तीन भाई थे और तीनो में वे छोटे। मेरे पिता के दोनों बड़े भाई स्कूल से आगे नहीं गए। सच तो ये प्राइमरी स्कूल से ज्यादा पढ़ने की उन्होंने नहीं सोची और न ही इसकी जरुरत समझी। पर मेरे पिता पढ़ना चाहते थे। हालाँकि मेरे बाबा नहीं चाहते थे की मेरे पिता उनसे दूर रहे फिर मेरे पिता की इच्छा जानके उन्होंने मेरे पिता को पढ़ने के लिए शहर भेज दिया। मुझे इस बात का बेहद फख्र है कि मेरे पिता ने उस ज़माने प्रथम श्रेणी में विज्ञानं से स्नातक मुकम्मल किया था। 

मेरे बाबा ने जब नश्वर देह त्याग दी तो परम्परा के अनुसार उनके सबसे बड़े बेटे यानि मेरे सबसे ताऊ ने ज़मीदारी संभाली। हमारी ये खानदानी ज़मीदारी आठ गाँव में फैली हुई थी। देश को आज़ादी मिलने के बाद कहने को तो ज़मीदारी ख़त्म हो चुकी थी पर मेरा घराना खुद को ज़मीदार ही समझता रहा था। भले ही उनके पास ज़मीदारी के कोई क़ानूनी अधिकार न बचे हो पर आठ गाँवो के इलाके में फैली उनके सेकड़ो बीघा खेत और बाग़ उन्हें ज़मीदारी के दम्भ से आज़ाद नहीं होने देते थे। अगर इस ज़मीदारी के दम्भ से थोड़ा बहुत कोई आज़ाद था तो वो थे मेरे पिता।
मेरे बाबा की मृत्यु के बाद मेरे सबसे बड़े ताऊ ज़मीदार बने थे। उनसे छोटे ताऊ का खून ठेठ ज़मीदारी वाला खून था। आठगांव ही नहीं उसके बाहर के इलाको में भी उनकी दहशत की तूती बोलती थी।
हमारे गाँव के पास से एक नहर बहती थी। बहती थी क्या, आज भी बहती है। खेतो की सिचाई के लिए। सिचाई को सुविधाजनक बनाने के लिए इस नहर पे गवर्मेंट ने एक बांध बनवाया था। सिचाई विभाग के कर्मचारियों के रहने के लिए इस बांध के समीप एक ईमारत तामीर की गई थी। इसमें कर्मचारियों के रहने के लिए कुछ क्वार्टर के अतिरिक्त एक छोटा से खूबसूरत बांग्ला भी था। जब भी कोई बड़ा अधिकारी आता तो वो इस बंगले में रिहायश करता।
कहने को तो ये ईमारत सरकारी लोगो के लिए आरामगाह थी पर वास्तव में इसे मेरे छोटे ताऊ ने अपनी दबंगई के चलते अपनी ऐशगाह के रूप में इस्तेमाल करते थे। किसी की क्या मज़ाल जो मेरे छोटे ताऊ के खिलाफ चूं भी कर जाये। सिचाई विभाग के कर्मचारी भी छोटे ताऊ के डर से तक़रीबन उनके नौकर की तरह रहते। इसी बंगले में महफ़िल सजती। दारू और चिकेन मटन का भोग लगता। ये महफिले सिर्फ यहाँ तक ही सीमित नही रही बल्कि मेरे छोटे ताऊ इस बंगले में अय्याशी के लिए पास के गांव में रहने वाली तवायफों को भी बुलाते। जब बाज़ारू औरतो से ताऊ का जी नहीं  भरता तो वो अपनी हवस आठगांव में रहने वाली पसंद आई औरत या लड़की को जबरन रौंद के लेते। बेचारे गरीब गांव वाले मन मसोस कर रह जाते।
उस समय में वो हमारे अठगवां की सबसे सुन्दर लड़की थी। उनकी सुंदरता का किस्सा मेरे छोटे ताऊ के कानो तक पहुंचा तो ताऊ उन्हें अपने ऐशगाह में लाने की जुगत भिड़ाने लगे। और फिर एक दोपहर जब वो खेत पे  अपने बप्पा को रोटी पानी दे जा रही थी तो छोटे ताऊ उन्हें अपने कारिंदो की मदद से उठा कर अपनी ऐशगाह में ले आये।
मेरे ताऊ ने उन्हें जितना कमजोर समझा था वो उतनी कमजोर थी नहीं। वो शाक्य जाति के एक मेहनती किसान की मेहनती बेटी थी। जहाँ सुंदरता ने उनके शरीर को सुकोमल  बनाया हुआ था वही मेहनत ने उनके शरीर को सशक्त भी बना दिया था। अपनी हिफाजत के लिए बंद कमरे में उन्होंने किसी शेरनी की तरह मेरे छोटे ताऊ का मुकाबला किया। 
पता नहीं मेरे छोटू ताऊ जानते थे या नहीं पर वो सुकोमल और सशक्त लड़की अपनी ही जाति के किसी लड़के के प्रेम में थी।  उस दोपहर जब ताऊ उन्हें उठाकर लाये तो वो अपने प्रेमी से मिलके खेत की ओर जा रही थी। शायद उनके प्रेमी की नज़र इस कांड पे पड़ी होगी।
जब तक उनका प्रेमी उस  ऐशगाह में पहुंचा तब तक उन्होंने बड़ी बहादुरी से खुद को बचाये रखा। जब उस वीराङ्ग्ना ने अपने प्रेमी को सामने देखा तो वो वीरांगना भाग कर अपने प्रेमी के पीछे छिप गैई।
पर मेरे छोटे ताऊ अपनी ज़मीदारी के दम्भ में आकंठ में डूबे हुए थे इसलिए उन्हें ये समझ नहीं आया जब उस शख्श ने मेरे ताऊ को ये समझाने की कोशिस की 'कि यूँ किसी लड़की की अस्मत से खेलना अच्छी बात नहीं और उन्होंने ये भी बताया कि वे आपस में प्रेम करते है इसलिए अब वो दुबारा कभी इस लड़की  पे अपनी गन्दी नज़र न डाले। ख़ैर मेरे ताऊ ने आगे बढ़कर लड़की को उसके प्रेमी से खींचने की कोशिस की तो उनकी उम्मीद के विपरीत उस युवक ने मेरे छोटे ताऊ के जबड़े पे एक ज़ोरदार घूसा जड़ दिया। 
शायद अपनी अब तक की पूरी ज़िंदगी में किसी ने मेरे ताऊ ने अपने चेहरे पे  किसी का घूसा खाया था। उनके जमीदारी खून ने भी उबाल खाया और उन्होने भी पलट के एक घूसा उस युवक के मार दिया। फिर दोनों आपस में गूँथ गए। वो युवक भी एक मेहनती और बलिष्ठ किसान था। उसके एक वार से छोटे ताऊ लड़खड़ा के दीवार से टकराये। उनका सर  दीवार से तकराने से फट गया। उनके मुह से पह्ले खून निकला और फ़िर हिच्की और इसी हिचकी के साथ उनके प्रान भी शरीर से निकल गये।   
अन्दर चल रही इस हाथापाई की आवाज़ सुनकर ताऊ के कारिंदे वहां गए और बिना कुछ विचारे उस युवक पे पिल पड़े। उस लड़की ने रोते चिल्लाते और अपनी पूरी शक्ती लगाकर  अपने प्रेमी को बचाने की पूरी कोशिस की पर वो उन मुस्तन्दो के आगे हर गयी। कुछ ही देर मे उस सरकारी बङ्ग्ले मे दो लशे गिर गयी थी।
हमारे घर और उस युवक के घर दोनो जगह मातम पसर गया .पर दुख तो हमारे घर मे ज्यादा था।  क्योंकि बाकी लोगो का मरना तो किसी जानवर कॆ मरनॆ के बराबर हे, जबकि हमारे घर में हुई मौत एक ज़मीदार के बेटे और भाई की मौत थी। यद्यपि हमारे ज़मीदार घराने के कारिंदो ने छोटे ताऊ की मौत का बदला उस युवक को मार के ले लिया था पर फिर भी मेरे बड़े ताऊ की नज़र में अभी उनके छोटे भाई की हत्या का साथ इन्साफ पूरा हुआ ही नहीं था। 
पास के कसबे में पुलिस चौकी थी। इस पुलिस चौकी की सारी जरुरत की चीजे हमारा घराना मुहैय्या कराता था। इस वक़्त पुलिस वाले हमारे घर पे हमारे मातम में शरीक हो रहे थे पर मेरे बड़े ताऊ इतने से ही संतुष्ट नहीं थे। कुछ देर में ही कुछ पुलिस वालो के साथ हमारे घराने के कारिंदे उस युवक और युवती के गांव पहुंचे। युवक युवक और युवती दोनों के घर वालो की बेरहमी से पिटाई की गई और युवती को ज़बरन उठाकर हमारे घर ले आया गया। तुरंत ही लकड़ी के एक ढेर में आग लगवाकर मेरे बड़े ताऊ ने ऐलान कर दिया कि उनके भाई की लाश जले उससे पहले इस लड़की को  आग को में झोंक कर जला दिया जाये।
मैने पहले ही ज़िक्र किया कि वो लड़की न सिर्फ सुकोमल थी बल्कि उसमे शेरनी की ताकत भी थी। खुद को आग में झोंखे जाने का उसने जबरदस्त विरोध किया। कहते हैं की भगवान् हमेशा हिम्मत से संघर्ष करने वालो का साथ देते हैं। इस वक़्त भगवान् ने उस दुखियारी शेरनी की मदद करने का फैसला किया।
मेरे पिताजी जो शहर में स्नातक की पढ़ाई कर रहे थे वो उस दिन यूँ गाँव की याद आने की वजह से घर आ गए।
घर का ये वीभत्स मंजर देख कुछ देर तो मेरे पिता को कुछ समझ नहीं आया पर तुरंत ही वो अपने बड़े भाई की लाश और उस युवती को जलाये जाने का प्रयास देखकर तुरंत ही माज़रा समझ गए। यद्पि भाई की मौत उनके लिए एक हृदयविदारक सदमा था पर उस समय उन्होंने अपना कृतव्य सुनिश्चित किया और भागकर उस युवती को, जो लगभग जलती आग में फेंक दी गई थी उसे आग से खींच निकाल कर अपने कोट को उतार उससे उस लड़की के कपड़ो में लगी आग बुझाने लगे।
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पिता ने अपने स्नातक की पढ़ाई दांव पे लगा दी थी। उस नवयुवती की रक्षा और आठ गाँव में अपने घराने केकायम आतंक को रोकने के लिए।
मेरे पिता ने उस लड़की से विवाह का प्रस्ताव रखा। जिसे उस लड़की ने स्वीकार कर लिया। पहले में उस लड़की के अपने से विवाह की स्वीकृति दिए जाने कि वजह ये समझता रहा कि जरूर वो लड़की ने खुद को आग से बचाने वाले इंसान को देवता समझा होगा और जब उस देवता ने उससे विवेक का प्रस्ताव रखा तो वो देवता को मना कर पाएगी जबकि उस देवता का भाई उसके प्रेमी का हत्यारा था। हालाँकि यक़ीनन मेरे पिता से  लड़की के विवाह कर लेने की ये वजह रही होगी पर एक और वजह थी जिसकी वजह से उस लड़की ने मेरे पिता से शादी की थी। उस वजह का खुलासा मैं बाद में करूँगा।
वो लड़की ने शादी के बाद नियत समय पे एक लड़के को जन्म दिया। वो लड़का मैं था इसलिए मैं अब से उस लड़की के लिए 'मां' का सम्बोधन प्रयोग करूँगा।    
मेरे पिता चाहते तो मेरी मां से विवाह के बाद शहर में जाकर रह सकते थे पर मेरे पिता चाहते थे कि आगे से मेरी मां की तरह कोई और लड़की उस आठ गाँव में सताई जाये। इसलिए मेरे पिता मेरी मां के साथ अपनी पुश्तैनी हवेली में रहने लगे। हालाँकि मेरे पिता मेरी मां का बेहद ख्याल रखते थे पर मेरी मां को हवेली में बेहद अपमानित होना पड़ता था। पिता के आलावा हवेली के प्रत्येक सदस्य मेरी मां को मेरे छोटे ताऊ की मौत का ज़िम्मेदार समझते थे। अब लाज़िमी है कि एक गर्वीला ज़मीदार खानदान ऐसी औरत से नफरत ही करेगा और उसे गाहे - बगाहे अपमानित करेगा ही।
यदयपि मेरी मां भी पिता का बेहद ख्याल रखती थी पर मेरे पिता अक्सर उदास रहा करते थे। पहले मां ने पिता की उदासी का कारन यही समझा कि वो अपने भाई की मौत से उदास रहते हैं पर जल्द ही मां को पिता के उदास रहने की एक ओर वजह पता चल गई। 
मेरी मां की जान बचाने के लिए पिता ने साहसिक निर्णय लेते हुए उनसे विवाह तो कर लिया पर उससे पहले वो शहर में एक लड़की को अपना दिल दे चुके थे। मेरी मां ने भी प्रेम किया था। वो प्रेम और उसकी जुदाई की पीड़ा से भली - भांति परिचित थी। मेरे पिता और साथ ही वो लड़की जिससे मेरे पिता ने प्रेम किया था, वो दर्द की किस दौर से गुज़र रहे होंगे ये सोच कर मेरी मां के कलेजे में हुक उठती।
मेरी मां ने पिता को कई बार समझाया कि वो शहर जाये और जाके उस लड़की को अपना ले। पर मेरे पिता मेरी मां को यूँ हवेली में अकेले छोड़कर जाने को  तैयार नहीं थे। उन्हें डर था की उनके बाद हवेली में मां के साथ कुछ गलत हो सकता है। पर जब एक दिन मां ने पिता को अपनी और उस लड़की की कसम एक साथ दे दी तो पिता शहर जाने को तैयार हो गए।
पिता शहर गए तो जल्दी लौट कर नहीं आये। हालाँकि मेरे पिता में कोई ऐब नहीं था। पर जब वो स्नातक की पढ़ाई के लिए शहर में थे तो एक बार अपने कुछ दोस्तों के बेहद इसरार पे कोठे पे चले गए। यहीं इस कोठे पे एक लड़की से उनकी नज़र यूँ टकराई कि वो उसे दिल दे बैठे। वो लड़की भी मेरे पिता के बांकपन पे दिल हार गई। यूँ मेरे पिता जिस लड़की के विछोह में हमेशा ग़मगीन रहा करते थे ये लड़की यही कोठे पे रहते थी। जहाँ वो और उस जैसी कुछ लड़किया आने वाले लोगो का अपने गायन और नृत्य से दिलजोई करती थी।
उस समय टेलीफोन नहीं हुआ करते थे।  शहर से पिता मां को नियमति पत्र लिखते थे पर कोई भी पत्र मेरी मां के हाथो तक नहीं पहुंचा। या ये कहो पहुँचने ही नहीं दिया गया। तक़रीबन डेढ़  साल बाद मेरे पिता जब घर लौटे तो उनके साथ छोटी अम्मा और उनकी गोद में एक - डेढ़ महीने की बच्ची भी थी।
जिस दिन पिता घर आये उस दिन उन्हें छोटी अम्मा और उनकी गोद में प्यारी सी  बच्ची के साथ देखकर मां बहुत खुश होती। पर मेरी मां अब इस दुनियां में कहाँ थी। मैने उन्हें बीमार होते देखा था। बीमारी में दम तोड़ते देखा था। हालंकि बाद में मुझे पता चला था कि कि मेरी मां की बीमारी की वजह उन्हें धीमा ज़हर दिया जाना था और मेरी मां की मौत असल में मौत नहीं हत्या थी।
जिस अंदेशे की वजह से पिता मां को अकेले छोड़कर शहर नहीं जाना चाहते थे वो अंदेशा सही निकला था। लेकिन उस समय मेरे मां की मौत को मेरी तरह उन्होंने बीमारी की वजह से हुई सामन्य मौत  मान लिया था।
उस वक़्त हमारा पूरा खानदान से मेरी मां से शादी करने की वजह से मेरे पिता से पहले ही बेहद नाराज़ था और अब जब वे  अपने साथ कोठे में नाचने वाली को ले आये तो सब के सब लगभग मेरे पिता के दुश्मन ही बन गए।
सिर्फ पूरा खानदान मेरे पिता के खिलाफ था बल्कि वो अठगंवा जिसकी भलाई के लिए पिता ने अपना पसीना बहाया था वो भी पिता का विरोधी बन बैठा था। हमारे घर में एक तवायफ किसी की ब्याहता की हैसियत से रहे ये घर वालो को मंज़ूर था और ही गाँव वालो को। 
पहले गाँव वालो पिता को ऊंच नीच समझाई। पर जब पिता छोटी अम्मा को हवेली में ही रखे रहे तो गाँव वालो ने ब्राहम्णो की अगुवाई में हमारे घर की लुटिया बंद कर देने की धमकी दी। 'लुटिया बंद कर देने' का अर्थ ये होता कि जिस घर की लुटिया बंद की जाती थी फिर उस घर का कोई भी पानी तक नहीं पीता था। उसके घर का  भोजन करना तो बहुत दूर की बात होती थी। तब ये किसी भी खानदान के लिए 'लुटिया बंद करने' वाली प्रथा बेहद अपमानजनक मानी जाती थी। लोग मर जाना पसंद करते थे पर अपने घर पे प्रथा नहीं लगने देते थे। 
बड़े ताऊ ने पूरे खानदान को इस प्रथा से बचाने के लिए पिता को उन कमरों में से एक में रहने को कह दिया जो घर के नौकरो के लिए थे। मेरे पिता ने ख़ुशी से उस एक कमरे में रहना स्वीकार कर लिया। छोटी अम्मा के साथ रहने से पिता किसी भी तकलीफ में खुश रह सकते थे, इसका आभास मुझे उस कच्ची  उम्र में भी हो गया था।
पर गांव के ब्रह्मणो को बड़े ताऊ द्वारा की गई ये व्यवस्था पसंद नहीं आई। लुटिया बंद करने के लिए उनकी एक ही शर्त थी कि वो उस तवायफ को घर से निकाल दे।
छोटी मां एक राजकुमार को राह का भिखारी बनते देख रही थी। उन्होंने पिता को समझाने का प्रयास किया 'कि पिता उन्हें वापस शहर में उसी कोठे पे चले जाने दे।' लेकिन पिता ने उनकी बात को एक सिरे से खारिज कर दिया। जब पिता ने उनकी बात नहीं मानी तो एक दिन जब पिता किसी गाँव में किसी से मिलने गए थे तो छोटी मां गोद में अपनी बच्ची को उठाकर चली गई। उस समय मैं स्कूल गया था और घर की किसी अन्य सदस्य ने ये जानने की कोशिस ही नहीं की कि छोटी मां कहाँ जा रही है।
जाते हुए छोटी मां ने पिता को अपनी कसम देते हुए खत लिखा 'कि वे अब कभी भी शहर मुझे इस गाँव में वापस लाने के लिए नहीं आयंगे। उन्होंने ये भी लिखा  उनकी सबसे बड़ी इच्छा ये है कि पिता गाँव की भलाई और तरक्की के लिए काम करे।
पिता छोटी मां से मिलने शहर तो गए पर उन्हें वापस घर लेकर नहीं आये। छोटी मां की दी कसम का मान तो उन्हें रखना ही था।
वक़्त आगे खिसका और इस खिसकते वक़्त के साथ मेरे बड़े ताऊ की हत्या कर दी गई। किसी ने हत्यारो को नहीं देखा था। पर अठगांवा में दबी जबान में चर्चा थी कि ज़मीदार को उस युवक के भाई ने मारा है जो मेरी मां का प्रेमी था। बड़े ताऊ के मरने के बाद पूरे घराने की ज़िम्मदारी पिता पे गई। मैने  महसूस किया था की मेरे दोनों ताऊ के बच्चो की आँखों में मेरे पिता के लिए कोई खास सम्मान नहीं रहता था। यहाँ तक मेरी बुआ और उनके बच्चे भी मेरे पिता को कोई सम्मान नहीं देते थे। मेरे दोनों ताऊ के बच्चे गाँव के स्कूल से आगे पढने को तैयार नहीं हुआ। वो सब के सब अपने कमरों में आराम फरमाते और ऐश करते। वो सब हर महीने बिना कोई काम या मेहनत किया  पिता से एक निश्चित रकम लेते अपने अनाप शनाप खर्चो के लिए।
मेरे पिता मुझे पढ़ाना चाहते थे। मैं भी पढ़ना चाहता था। पिता ने मुझे शहर भेज दिया। मैने एक नामचीन स्कूल में बी एस सी पाठ्यक्रम में दाखिला ले लिया। हालाँकि मै अपनी पढ़ाई पे पूरा ध्यान केंद्रित किये हुए था पर मए मैं उम्र के उस पड़ाव पे था जहाँ ये ध्यान का भंग हो जाना लाज़िमी था।
मैं केमिस्ट्री में थोड़ा कमजोर था तो पिता ने मुझे इसकी ट्यूशन लेने की हिदायत दी। जहाँ में केमिस्ट्री की क्लास अटेंड करने जाते था उससे थोड़ी दूर पे संगीत और नृत्य सिखाने का एक विद्याल था। जिसने मेरा ध्यान भंग किया वो खूबसूरत दोशीज़ा इसी संगीत के विद्यालय में संगीत और नृत्य सीखने आती थी।
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आगे जारी...

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सुधीर मौर्य 
गंज जलालाबाद, उन्नाव 
 २०९८६९     

1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (19-08-2017) को "चीनी सामान का बहिष्कार" (चर्चा अंक 2701) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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