Sunday, 20 August 2017

छोटी अम्मा की बेटी (कहानी, भाग २) - सुधीर मौर्य

वो सिर्फ एक लड़की भर नहीं थी बल्कि उसमे स्वर्ग की अप्सरा के गुण भी विद्यामन थे। अभी उसका लड़कपन उसके साथ था। बमुश्किल उसने अब तक सोलह दीवाली ही देखी थी। मेरी उम्र भी उस समय अठारह या उन्नीस होगी। उससे कोई दो या तीन साल मैं बड़ा रहा हूँगा। यानी हम दोनों उम्र के उस पड़ाव पे थे जहाँ आकर्षण प्यार के नाम से दिलो में जगह बना लेता है। मैं जब केमिस्ट्री की बोरिंग क्लास से निकल के आता तो गली के मोड़ पे वो अपने गुलाबी होठो पे कोई सुरीला गीत गुनगनाती हुई मेरे इंतज़ार में खड़ी मिलती। हम अक्सर किसी पार्क के कोने में एक दूसरे का हाथ थामे दुबक जाते और वो मेरी फरमाइश पे मुझे सुरीले गाने सुनाती रहती। मैं उसकी नाव से आखो में तैरते हुए उसकी पत्थरो को पिघला देने वाली आवाज़ में गीत सुनते हुए उसके काँधे पे सर टिका देता। और फिर कुछ देर बाद वो अपनी नरम उंगलिओ को मेरे बालो में फिराते हुए कहती 'चलो तपस्वी अब जाने दो देखो कितने देर हो गई है मां मेरा इंतज़ार कर रही होगी।

मैं उसका हाथ पकड़ के इसरार करता 'सँजोत तनिक देर और रुक जाओ।' और वो मेरी बात सुनके मेरे काँधे पे अपना सर  रख कर अपनी बोझल पलकों को झपका कर किसी नानिदो के मानिंद मुझे यूँ तकने लगती जैसे उसे अगर मैं जाने से रोकता तो वो फिर कभी मुझे देख ही नहीं पाती।
मैं सँजोत के इश्क़ में किसी परिंदे के मानिंद नीले आसमान में परवाज़ कर रहा था और सँजोत किसी नीलपरी सी मेरी इस उड़ान में अपने दुपट्टे को मेरे लिए पंख सा इस्तेमाल कर रही थी।
हालाँकि मैं सँजोत से बेपनाह प्रेम में डूबा था पर मैने कभी भी अपने इश्क की वजह से अपनी पढ़ाई पे कोई असर पड़ने नहीं दिया। खुद सँजोत मुझे पढ़ने के लिए हमेशा प्रेरित करती रहती थी।  
पिता भी तक़रीबन हर महीने मुझसे मिलने आते थे। जब वे आते खुद अपने हाथो से कमरे में मेरी दैनिक प्रयोग की चीजे लाकर रख देते। टूथपेस्ट, साबुन, बालो में डालने वाला तेल, खाने के लिए नमकीन, पेड़े और बिस्किट जैसे जाने कितने सामान पिता लाकर कमरे की अलमारियों में सजा देते। जब तक पिता शहर में रुकते वो अपने सामने मुझे बिठाकर  कुछ कुछ खिलाते ही रहते। पढ़ाई के बारे में डिस्कस करते, कई बिन्दुओ पे एडवाईस करते।
वे अक्सर शाम को तनहा घूमने चले जाते और फिर काफी देर में लौटते। मैं जानता था छोटी अम्मा इसी शहर में कही रहती है। मैं सोचता शायद पिता उनसे ही मिलने जाते होंगे। मेरा मन इस ख्याल से ख़ुशी महसूस करता कि पिता, छोटी अम्मा से मिलने गए होंगे।    
मैं बहुत याद करने की कोशिस करता पर छोटी अम्मा की सूरत मुझे याद नहीं आती। कभी - कभी सोचता पिता से कह दूँ कि अबकी जब वो छोटी अम्मा से मिलने जाये तो मुझे भी साथ में ले चले। पर फिर ये ख्याल मुझे ऐसा कहने से रोक लेता कि अगर पिता, छोटी अम्मा से मिलने नहीं जाते होंगे। अगर पिता उनको भुला चुके होंगे तो कहीं मेरे मुँह से छोटी अम्मा का ज़िक्र उन्हें व्यतिथ कर दे।
मैं बहते समय के साथ स्नातक के दूसरे वर्ष  के इम्तिहान दे चूका था। गर्मियों के छुट्टियों में मैं अपने गाँव में था। जाने क्यों मुझे पिता बेहद परेशान  नज़र रहे थे। वैसे जहाँ तक मैं जानता था पिता तो हमेशा ही परेशान रहे थे अपनी ज़िंदगी में। पर इस बार मैने उनके चेहरे पे जो परेशानी देखी वैसी परेशानी मैने उनके चेहरे पर कभी नहीं देखी थी। मेरा मन करता मैं कभी अकेले में उनसे उनकी परेशानी का सबब पूछूं। उनकी परेशनी कम करने की कोशिस करूँ। पर मैं ऐसा कर नहीं पाता। सच कहूं तो आज तक मैने पिता के सामने सर उठाकर एक लफ्ज़ तक बोला था। मै उनके सामने जाकर उनसे उनकी परेशानी की वजह पूछूं, इतनी हिम्मत मैं कभी जुटा ही नहीं पाता।
पिता इस बार मुझसे कम ही बात करते। वो सुबह - सुबह ही हवेली से बिना कुछ कहे निकल जाते और रात गहराने के बाद आते। कभी - कभी तो अगले दिन रात ढलने पे घर लौटते। जब वे घर लौटते तो उनके कंधे मुझे पहले से ज्यादा झुके दिखाई देते और चेहरे पे निराशा के बदल नज़र आते। 
मेरी छुट्टियां ख़त्म हो गई और शहर जाने से पहले मै अपने भीतर इतनी हिम्मत इकठ्ठा नहीं कर सका कि पिता से उनकी परेशानी जानने की कोशिस करूँ। मेरे शहर जाने के बाद पिता का भी शहर आने का क्रम बढ़ गया। इस बार वो कमरे पे ज्यादा नहीं रुकते। अधिकतर वो सुबह निकल जाते और देर रात गए लौटते। 
पिता की परेशानी ने मुझे भी परेशान कर दिया था। मेरी इस परेशानी से परेशान होकर सँजोत मेरी परेशानी जाननी चाही। पिता की हालत के बारे में सँजोत को बताते हुए मेरी आँखों में आंसू के कतरे झिलमिला उठे।
अपने दुपट्टे पे मेरे आंसू जज्ब करके अपने नर्म हाथो से मेरा सर और चेहरा सहलाते हुए सँजोत ने मुझे दिलासा दी और मेरी हिम्मत बढ़ाते हुए उसने मुझसे कहा कि मैं तुरंत अपने पिता से उनकी परेशानी जानने की कोशिस करूँ। और ये एहसास दिलाऊ कि उनका बेटा अब उनकी हर परेशानी में उनके साथ खड़ा है।
उस समय शहर में दशहरे की सजावट हो रही थी जब सँजोत के कहने से मैं अपनी पिता की तकलीफ जानने के लिए गाँव जाने वाली बस में बैठा था। सँजोत मुझे बस अड्डे तक छोड़ने आई थी। आज वो भी जाने क्यों मुझे उदास लगी थी। बस चल पड़ी तो मैं खिड़की से सर बाहर निकल कर उसे देखने लगा। तब तक देखता रहा जब तक वो नज़र से ओझल हो गई। पूरे सफर में मुझे सँजोत की उदासी और पिता की परेशानी, परेशान करती रही। मैं पहले भी कई बार सँजोत से मिलने के बाद गाँव गया था पर वो कभी यूँ उदास नहीं हुई थी जैसे वो आज उदास थी। 
मैं जब घर पहुंचा तो पिता अपने कमरे में थे। अपना बैग एक तरफ डाल के मै उनसे मिलने के लिए सीधा उनके कमरे की ओर गया। अमूमन पिता अपने कमरे का दरवाज़ा खुला रखते है, पर आज कमरे का दरवाज़ा बंद था। मैने सोचा शायद पिता सो रह गए, अगर अभी सोये होंगे तो उन्हें जगाना ठीक नहीं। जब जागेंगे तो उनसे आकर मिलूँगा, यह सोच कर अभी मैं जाने के लिए कमरे के दरवाज़े के पास से मुड़ा ही था कि मेरे मुझे कमरे के भीतर एक तेज स्वर सुनाई दिया। अपने पिता की आवाज़ मैं एक लाख लोगो के बीच में पहचान सकता था और मुझे यकीन था ये तेज़ स्वर मेरे पिता का नहीं था। फिर ये तेज़ आवाज़ में बात करने वाला कौन हैजानने के लिए मेरे पाँव वही ठिठक गए।
मैंने दबे पाँव जाकर तनिक खुली खिड़की की झिर्री पे जाकर आँखे टिका दी। अंदर का दृश्य देख कर मैं एक बारगी काँप गया। मेरी देह का रोम - रोम क्रोध से खड़ा हो गया था।
अंदर मेरे पिता हाथ जोड़ के खड़े धीमे - धीमे कुछ कहते और उनके सामने कमर में हाथ रखे मेरी बुआ के लड़के गुस्से में मेरे पिता को दुत्कारने वाले अंदाज़ में चिल्लाने लगते।
मैं नहीं जानता था मेरे पिता की क्या मज़बूरी थी जो वो बुआ के लड़के से यूँ चिरौरी वाले अंदाज़ में बात कर रहे थे और मेरी बुआ का लड़का जिसे मेरे पिता ने पढ़ाया लिखाया था वो मेरे पिता को तेज आवाज़ में दुत्कार रहा था। गुस्से की अधिकता से मेरे कांपते पाँव कमरे के दरवाज़े पे पहुँच कर भीतर घुसने ही वाला था किसी ने मेरा हाथ पकड़ लिया। मैने पलट के देखा तो संजीवन लाल मेरा हाथ पकडे हुए थे और अपना सर हिलाकर विनती करने के अंदाज़ में मुझे भीतर जाने से रोक रहे थे।
संजीवन लाल प्रौढ़ उम्र के हमारे घर के नौकर थे। भले ही वो हमारे घर में नौकर थे पर मै उन्हें बेहद सम्मान देता था। सच कहूं तो मां की मौत के बाद पिता के आलावा एपूरी हवेली में एक संजीवन लाल ही थे जिन्होंने मेरा ख्याल रखा था और मेरी मां की वजह से मुझसे नफरत नहीं की थी बल्कि बेहद प्यार दिया था।
यद्पि मेरा  खौलता रक्त मुझसे कह रह था कि मै अभी कमरे में घुसकर पिता से तेज़ आवाज़ में बात करने वाले बुआ के लड़के का मुँह तोड़ दूँ पर संजीवन काका के मना करने से मैं ऐसा नहीं कर सका। संजीवन काका मेरा हाथ पकड़ के मुझे अपनी कोठरी में ले आये।  खटिया पे बिठाकर उन्होंने मुझे पीने के लिए गिलास में पानी दिया।
संजीवन काका मेरी मनोस्थिति समझ रहे थे इसलिए मेरे बिना किसी सवाल के कहा 'बेटा तपस्वी तुम्हारे पिता गुड़िया की वजह से बहुत परेशां हैं।'
'कौन गुड़िया ?' गुड़िया नाम से मेरा सवाल बिलकुल जायज़ था क्योंकि मैं जानता था मेरे पूरे खानदान और रिश्तेदारी में किसी भी लड़की का रियल या निक नेम गुड़िया नहीं था।
'तुम्हारी छोटी अम्मा की बेटी।' काका के उत्तर ने धमनियों में बहते मेरे रक्त का प्रवाह तेज कर दिया था। 
और फिर संजीवन काका ने मुझे जो भी  बताया उसे सुनकर मुझे लगा मानो मेरे पांव के नीचे की ज़मीन खिसक गई हो। उनकी कोठरी से थके पाँव चलकर अपने कमरे में मैं यूँ लेट गया मानो मै महीनो से बीमार रहा हूँ। मेरे पिता के परेशान रहने का राज़ मेरे दिमाग के सामने फाश हो गया था। ये राज़ जान के जब मैं इतना छटपटा रहा था तो पिता कितने छटपटाते होंगे, ये सोच कर मेरा सर फटने लगा था।
छोटी अम्मा की बेटी अब जवान होने की राह पे थी। भले ही छोटी अम्मा तवायफ हो पर पिता ने उनसे सच्चा प्रेम किया था। गुड़िया उसी प्रेम की निशानी थी। पिता नहीं चाहते थे कि उनकी बेटी कोठे पे नाचे गाये। कोई भी पिता नहीं चाहेगा उसकी बेटी ऐसा काम करे। मेरे पिता की परेशानी का सबब यही था। छोटी अम्मा अपनी बेटी के साथ कोठे पे रहती थी और बहुत जल्द ही उस कोठे के नियमो के अनुसार उनकी बेटी के पाँव में घुंगरू बंधने वाले थे। छोटी अम्मा ने खुद से और गुड़िया से मिलने से पिता को रोका नहीं था पर वो कहती पिता से कहती कि तुम्हारी हवेली और कतिथ सभ्य समाज  से ये कोठा बेहतर है। यहाँ फिर भी हमारी कोई इज्जत है पर इसके बाहर तुम्हारे समाज हमें गालियां देकर जीने नहीं देगा। मेरे पिता ने जब छोटी अम्मा से कहा कि वो गुड़िया को कोठे की ज़िंदगी से दूर कर दे तो छोटी अम्मा ने हंस कर कहा उससे क्या होगा ठाकुर साहेब, तुम्हारे सभ्य समाज का कोई भी शख्स गुड़िया को जीबन संगनी बनाना नहीं चाहेगा।
संजीवन काका ने बताया की तब से ही ज़मीदार साहेब अपने हर दोस्त और जानने वाले से प्रार्थना कर रहे है कि वो अपने घर के किसी लड़के की शादी गुड़िया से करने को तैयार हो जाये। और बदले में वो सारे शख्स मेरे पिता का मखौल उड़ाकर कहते कि 'ठाकुर साहेब नाचने वाली की लड़कियां नाच देखने के लिए ही ठीक है   शादी वादी की बात छोड़ो।
हमारे रिवाज़ में बुआ ले लड़के से किसी लड़की की शादी जायज़ मानी जाती है। इसलिए आज मेरे पिता बुआ के लड़के के सामने इसलिए गिड़गिड़ा रहे थे कि वो गुड़िया से शादी कर ले पर बुआ ले लड़के ने भी मेरे पिता से यही कहा की अगर वो चाहे तो तो गुड़िया का पहला मुजरा देख सकते है पर उससे शादीये तो उनके ठाकुर रक्त के लिए एक  गाली है।
मेरे लाख सर पटकने के बाद पिता की परेशानी दूर करने का एक ही उपाय नज़र आया कि मैं छोटी अम्मा और गुड़िया से मिलू और गुड़िया को उस कोठे के दलदल से निकालने की कोई सूरत निकालू। अगर गुड़िया को कोठे की गन्दी ज़िंदगी से दूर करने का एक मात्र उपाय उसकी किसी अच्छे लड़के से शादी करना ही  है तो मैने मन ही मन सोचा कि अपने दोस्तों से बात करूँगा, शायद उनमे से कोई  गुड़िया को तवायफ की बेटी होने के भंवर से बाहर निकाल कर उसका हाथ थाम ले।
संजीवन काका से कोठे का पता और छोटी अम्मा की एक फोटो लेकर में शहर गया। ये फोटो काका ने पिता के एक पुराने अल्बम से निकाल के दी थी। फोटो में पिता और छोटी अम्मा साथ   खड़े थे। पिता की गोद में एक तीन - चार महीने की बच्ची थी। यक़ीनन ये गुड़िया थी। फोटो काफी पहले की थी पर मुझे इसके आधार पे ही उस कोठे पे पहुँच के छोटी अम्मा को पहचनाना था।
मैं क्लास अटेंड करने के बाद किसी ऐसे व्यक्ति की तलाश में था जिससे मै बिना हिचक उस कोठे का पता पूंछ संकू जहाँ छोटी अम्मा और उनकी बेटी रहती थी।
तभी मैने देखा सँजोत मेरे पास आकर खड़ी हो गई थी। आज उसकी संगीत की कोई  स्पेशल क्लास थी इसलिए वो थोड़ा लेट आई थी नहीं तो अमूमन मेरी और उसकी क्लास छूटने का टाईम तक़रीबन एक ही था।
'वो आज देर से क्यों आई' ये मेरे पूछने से पहले ही उसने बता दिया था कि आज उसकी एक विशेष क्लास है। फिर मेरी गांव की  विजिट और पिता की परेशानी के बारे में उसने पूछा था। अपने पिता की परेशानी की हकीकत मैं सँजोत को बता कर उसे परेशान नहीं करना चाहता था। सँजोत अभी एक कमसिन टीनएज थी शायद इन बातो से उसके दिलोज़ेहन को झटका लगेगा, यही सोचकर मैने विषय बदल के उसके बारे में पूछा था।       
'तपस्वी मुझे कुछ खरीदना है, पर मै खरीद नहीं पा रही क्या आप मेरे लिए लाके दोगे ?'
'हाँ हाँ क्यों नहीं, बोलो क्या चाहिए तुम्हे ?' मेरी आवाज़ में गज़ब का उत्साह था। मेरी आवाज़ में उत्साह का होना  लाज़िमी था आखिर सँजोत वो लड़की थी जो मुझे प्यार करते थी।  प्रेयसी ने प्रेयस से पहली बार कुछ माँगा था। प्रेयसी  प्रेयस से कुछ मांगे, मुहब्बत में ये पल  प्रेयस के लिए अनमोल होता है।
'पर उसके पैसे मै दूंगी।
पैसे में दूँ या तुमक्या फ़र्क़ पड़ता है सँजोत।'
नहीं तपस्वी मैं तभी लुंगी जब आप उसके पैसे लेंगे, और हाँ ये मेरी शर्त है।'     
हालाँकि प्रेयसी की इस बात ने प्रेयस का उत्साह तनिक कम किया था पर फिर भी प्रेयस हाँ कह दी।
'तपस्वी अब तक मैने कभी ब्रा नहीं बाँधी है, समीज ही पहनती आई हूँ। क्या आप ? बात अधूरी छोड़कर सँजोत ने आँखे झुका ली थी। मैने उसके गालो पे शर्म की लाली छलकते हुए महसूस की थी
मै और सँजोत दोनों एक दूसरे से बेपनाह प्यार करते थे। अब तक हमने हमने एक दूसरे को कई बार गले लगाया था एक दूसरे को चुम्बन दिए थे। घंटो एक - दूसरे का   हाथ थामे हमने बातें की थी। इन बातो में अंतरंग बातो की भी हिस्सेदारी थी। पर हम दोनों अब तक पवित्र थे। अब तक मैने सँजोत को बेलिबास नहीं देखा था।
हमने एक दूसरे से जो अंतरंग बातें की थी उसके असर से सँजोत मुझसे अपने लिए ब्रा लाने की बात कह पाई थी।
उसके गुलाबी होते गालो को अपनी ऊँगली से छूकर मैने कहा 'मेरी भी एक शर्त है।'
'क्या ? उसने अपनी बड़ी बड़ी आँखे उठाकर मुझे देखते हुए पूछा।
'मुझे पहन के दिखाओगी।' मैने अपने होठो पे हास्य लाते हुए कहा।
'धत्त।' कह कर उसने वापस सर झुका लिया। मैने महसूस किया मेरी बात सुनके उसके गालों का गुलाबीपन ओर बढ़ गया है।     
जब मैने शरारत से उससे पूछा 'तो पक्का ' तो वो शर्म की ताब ला सकी और वहां से तेज कदमो से लगभग भागते हुए हुए अपनी क्लास की ओर चली गई।
वो शाम जो रात की काली चादर ओड चुकी थी और शहर की चमकती बिजली उसकी देह पे सितारों की तरह  झिलमलाने लगी थी, मैने उस शाम अपनी प्रेयसी के लिए ब्रा खरीदी थी। उसके गुलाबी गालों के रंग सी। उसकी क्लास छूटने पे उससे मिला और ब्रा का पैकेट उसकी और बढ़ा दिया जिसे उसने होले  लेकर अपने बैग में रख दिया। हमने साथ में चाय पी और फिर वो चली गई। उस शाम फिर मैने ब्रा को लेकर सँजोत को छेड़ा नहीं था। मै नहीं चाहता था मेरी प्रेमिका मेरी किसी बात से ओड फील करे। आखिर उसने मुझसे ब्रा खरीदने की बात इसलिए ही कही होगी क्योंकि मैं उसके लिए सबसे सुरक्षित लगा हूँगा। मैं उसके विश्वाश को खंडित नहीं करना चाहता था।
सँजोत के जाने के बाद मैने दुआ मांगी की ये रात जल्दी ढले और मैं कल दिन के उजाले में अपनी छोटी मां से मिल संकू। छोटी अम्मा जिस कोठे पे थी उसका पता चल गया था।
शाम को सँजोत जब अपनी क्लास चली गई थी तो मेंने अपना समय सिर्फ दो कामो में लगाया था एक तो सँजोत के लिए ब्रा खरीदने में और दूसरा छोटी अम्मा के पता मालूम करने में।


आगे जारी...

सुधीर मौर्य 
गंज जलालाबाद, उन्नाव 
209869

2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (22-08-2017) को "सभ्यता पर ज़ुल्म ढाती है सुरा" (चर्चा अंक 2704) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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