Tuesday, 10 May 2016

मेरे और नाज़ के अफ़साने - ३


प्यार जताने का सलीका। 
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प्यार जताने के भी अपने सलीके होते हैं। 

और वो दोशीज़ा जो अब तलक दोशीज़ा न हुई थी, उसने मुहब्ब्त के अफ़साने का पहला हर्फ़ अपने होठों की गुलाबी स्याही से लिखा था। 

उस रोज़ जब मैँ न जाने किस वजह से क्लासरूम में लांच के बाद तनिक लेट आया तो दरीचे से नाज़ को अपने बैठने की जगह बैठै देखा। वो अपनी सहेलियों के साथ; जो वहां उसके साथ खड़ी थी, उनके साथ हँस - खिलखिला रही थी। 

मेरी आमद से उसके होठों की हँसी, मुस्कान में तब्दील हो गई और वो झुकी आँखों के साथ अपनी जगह पे  जाके बैठ गई। उसने झुकी आँखों से मुस्कराते होठों के साथ मुझे कई बार देखा। 

और फिर जब एक रोज़ मैने नाज़ को अपने गुलाबी होठों से उस जगह को चूमते देखा जहां मै अपनी किताबें व कापियाँ रखता था और कभी - कभी वहां अपना माथा रखके सुस्ताया करता था। तो मेरे माथे के उसके इस इनडाइरेक्ट बोसे ने मेरे दिल पे मुहब्ब्त की दस्तक दी। 

ये यक्ता नाज़ का अपनी पाक मुहब्ब्त को बयां करने का नायाब सलीका था। 
--सुधीर मौर्य      

4 comments:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 12-05-2016 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2340 में दिया जाएगा
    धन्यवाद

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