Thursday, 9 June 2016

मेरे और नाज़ के अफ़साने - ५

इबादतगाह की मुहब्ब्तगाह 


इबादतगाह भी मुहब्ब्त करने वालो का ठौर होता है।
उस शाम जब मै एक मंदिर की चौखट पे प्रसाद चढ़ाने के चढ़ रहा था तो मैने वहीँ पास पे एक पेड़ की औट से नाज़ को मुझे तकते हुए पाया। मै मंदिर की चौखट चढ़ने की जगह उतरने लगा था। मैँ नहीं जानता था ये कहीं गुनाह तो नहीं था।
जब मै  मंदिर की चौखट उतरकर पेड़ के पास नाज़ के सामने पहुंचा तो उसने नरम होठों से कहा 'पुरोहित पहले मंदिर हो आओ।'
'तुम न आओगी ?' मै पेड़ के तने  से एक रेशा खींच कर बोला था।
'आना तो चाहती हूँ, पर मै मुगलानी हूँ।' नाज़ ने अपना काला दुपट्टा अपने हलके भूरे कर्ली बालों में सम्हाला था।
'मंदिर, हिन्दू - मुस्लमान नहीं देखता।' कहकर मै उसकी कलाई पकड़कर उसे मंदिर के भीतर ले आया था। मेरे हाथ का प्रसाद मूर्तियों पे चढ़ाकर वो काफी देर सर झुकाए आँख मूंदे खड़ी रही। उस दिन मैने उससे नहीं पूछा था उसने ईश्वर से क्या माँगा बस  वापस उसकी कलाई पकड़कर बाहर आ गया था।
उस रोज़ न सिर्फ हमने ईश्वर की इबादत की बल्कि हमने मुहब्ब्त के सज़दे में भी सर झुकाया। उस दिन मंदिर में सर झुकाकर नाज़ ने मेरे प्यार को अपने दिल में मंदिर के दिये की तरह छुपा लिया था।
--सुधीर मौर्य            

2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (11-06-2016) को "जिन्दगी बहुत सुन्दर है" (चर्चा अंक-2370) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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