तुम गिटार नही बजाती
न ही वायलिन या सितार
तुम पियानो या
हारमोनियम भी नही बजाती
फ़िर भी
तुम्हारे हाथ और उँगलियों से
वो संगीत निकलता है
जिसमे डूब जाता हूँ मैं
रुह की गहराईयो तक
तुम नृत्य नहीं करती
न ही डिस्को
न ही कत्थक या फिर भरतनाट्यम
तुमने कभी लोकनृत्य भी नहीं किया
फ़िर भी तुम्हारे
पाँव की थिरकन
मेरे ह्रदय मे
बिजली सी कौंधती है
ओ लड़की !
जब तुम अपने हाथ के
बैडमिंटन रैकेट से
कोर्ट मे समा बांधती हो
तो तुम्हारे हाथ से निकले संगीत
और थिरकते पाँव के तिलिस्म मे
तुम्हारा प्रतिद्व्न्दी ही नही
मैं भी खो जाता हूँ।
--सुधीर मौर्य
न ही वायलिन या सितार
तुम पियानो या
हारमोनियम भी नही बजाती
फ़िर भी
तुम्हारे हाथ और उँगलियों से
वो संगीत निकलता है
जिसमे डूब जाता हूँ मैं
रुह की गहराईयो तक
तुम नृत्य नहीं करती
न ही डिस्को
न ही कत्थक या फिर भरतनाट्यम
तुमने कभी लोकनृत्य भी नहीं किया
फ़िर भी तुम्हारे
पाँव की थिरकन
मेरे ह्रदय मे
बिजली सी कौंधती है
ओ लड़की !
जब तुम अपने हाथ के
बैडमिंटन रैकेट से
कोर्ट मे समा बांधती हो
तो तुम्हारे हाथ से निकले संगीत
और थिरकते पाँव के तिलिस्म मे
तुम्हारा प्रतिद्व्न्दी ही नही
मैं भी खो जाता हूँ।
--सुधीर मौर्य
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज शनिवार (04-07-2015) को "सङ्गीतसाहित्यकलाविहीना : साक्षात्पशुः पुच्छविषाणहीना : " (चर्चा अंक- 2026) " (चर्चा अंक- 2026) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
bahut aabhar sir..
Deleteवाह, बहुत सुन्दर
ReplyDeleteaabhar sir..
Deleteपर प्रवीणता संगीत ही तो है ... सफलता का संगीत प्रेरित करता है अक्सर ...
ReplyDeleteबहुत लाजवाब रचना है ...
ji sir, bilkul sahi kaha aapne. saflta se sangeet ki prtidhwani nikalati hi he..
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