Friday, 12 June 2015

परिवर्तन, किसमे कितना ? - सुधीर मौर्य

अभी कुछ दिन पहले अपने किसी सम्बोधन में अशोक सिंघल जी ने राजा सुहेलदेव की प्रशंशा की।  कौन सुहेलदेव ? प्रश्न बहुत लोगो के दिमाग में आयेगा।  सुहेलदेव के बारे में लोगो को को जानकारी होना लाज़िमी भी है। क्योंकि सुहेलदेव की वीरता की चर्चा कभी भी सम्पूर्ण ढंग से हुई ही नहीं।  तत्कालीन मुस्लिम इतिहासकार सुहेलदेव की तारीफ़ क्योंकर करते जबकि सुहेलदेव ने आतताई सालार मसूद को बहराइच में मार गिराया था।  वही सलरमसुद जो भारत में सतरह हमले करने वाले महमूद ग़ज़नवी का भांजा था और और जो महमूद ग़ज़नवी की ही तरह भारत में विध्वंस करना चाहता था।  ऐसे नराधम को मारकर राजा सुहेलदेव ने भारत और भारत के आमजनमानस का कल्याण किया था। सालार मसूद के कुकृत्यो को विफल करने वाले का गुणगान मुस्लिम इतिहास कारो के फ़र्ज़ के दायरे से  बाहर था। और आधुनिक वामपंथी इतिहासकार अपनी छद्द्म सेकुलरता के चलते वीर सुहेलदेव की वीरता के बखान  की जगह सालार मसूद को पीर के रूप में महिमा मंडित करने में सहायक बनते रहे।     

सुहेलदेव भर / राजभर / पासी  कुल से थे, जिनका गौरवमयी इतिहास रहा है। ख़ैर आज मैने सुहेलदेव की चर्चा किसी अन्य कारणों से की है।   अशोक सिंघल जी ने सुहेलदेव के वीरोचित कार्य का गुणगान करके भारत के इस वीर सपूत के कार्यों को अमर करने का प्रयास किया।  पर अशोक सिंघल जी के इस पवित्र कार्य को भी कई तथाकथित दलित और मुस्लिम बुद्धजीवियों ने गलत ढंग से लिया और फेसबुक जैसी सोशल साइट इसका जी भर के कुप्रचार किया।  कमेंटों और पोस्टो के जरिये अशोक सिंघल जी को विदूषक तक कह डाला।  अपनी बात रखने और उसे सही साबित करने के लिए उन्होंने विभिन्न कुतर्को का सहारा लिया।  वही बाते जैसे - बीती कई सदियों में कैसे उच्च जातियों ने निम्न जातियों में अत्याचार किये।   मैं उनकी इन बातो से सहमत भी हूँ।  अवश्य ही दलितों के ऊपर श्रृंखलाबद्ध अत्याचार हुए है।  उन्हें भाति भांति से प्रताड़ित किया गया।  और तो और उन्हें करने के लिए तमाम घटिया नियम बनाये गये और स्मृतियों के रूप में लिपिबद्ध किया गया।  घटिया और नीच कार्य की जितनी आलोचना और भर्तसना की जाए वो कम होगी।  पर तथाकथित दलित विचारको से  मैं पूरी तरह असहमत हो जाता हूँ जब वो मुस्लिमो के द्वारा किया गए अत्याचार पे मूक बन जाते है या फिर जब परोक्ष - अपरोक्ष रूप से मुस्लिमो के द्वारा इस्लाम के नाम पे किये गए अत्याचार का समर्थन करते है।

मैं ये मानने को हरगिज़ तयार नहीं कि जब तलवार के ज़ोर पे इस्लाम फैलाया जा रहा था तो इस्लामिक हमलावरों के कहर से दलित समुदाय बचा रहा होगा।  सोशल साइट्स पे कई तथाकथित मुस्लिम बुधजिवी इस तरह से बाते करते हुए पाये जाते है मानो जिस दिन से इस्लाम ने भारत में प्रवेश किया उस दिन से ही उन्होंने भारत के दलित समुदाय को अपना भाई बना लिया।  उन्हें गले लगा लिया।  उनके दुःख दर्द में शरीक हुए और उनके हमदर्द रहे।  दलित समुदाय जिसे में दलित हरगिज़ नहीं मानता बल्कि उन्हें  भारत की गौरवमयी  सभ्यता का हिस्सा मानता हूँ , वो दलित समुदाय अब भी मुस्लिम इतिहासकारो / बुद्धजीवियों की इन चिकनी चुपड़ी बातो में बड़ी आसानी से जाते है, कि दलितों पे अत्याचार सिर्फ तब तक हुए जब तक मुस्लिम लोगो ने भारत में प्रवेश नहीं किया था।  और भारत में मुस्लिमो के शासक बनते ही उनपे अत्यचार बंद हो गए और मुस्लिमो के समकक्ष बना दिए गए।   मुस्लिम किस तरह अपने शासन में हर गैर मुस्लिम को काफिर मानकर उनपर किस तरह बर्बरता से अत्याचार करते है उसके लिए तनिक सी मेहनत करके पाकिस्तान में रह रहे हिन्दू  दलितों का हाल जानकर, जाना जा सकता है।  किस तरह वहां दलित और सवर्ण का भेद किये बिना हर हिन्दू लड़की का अपहरण करके उसका जबरन सामूहिक बलात्कार किया जा रहा है ये किसी से अब छुपा नहीं है।  पर गंधारी और ध्रितराष्ट्र की आँखों से ये दिखाई नहीं देगा। 

पिछले दशको में प्राचीनकाल से सवर्ण कहलाते रहे लोगो के एक धड़े ने अपने और अपने विचारो ने परिवर्तन किया है।  उन्होंने दलितों को अपना ही हिस्सा स्वीकार करके उन्हें छुआछूत के दायरे से निकालने के लिए प्रयास भी किया है। सावरकर जी ऐसे ही हिन्दू  बुद्धजीवी  थे जिन्होंने दलितों के गौरवमयी गाथा का वर्र्ण किया।  अत्याचारी ख़िलजी वंश का विध्वंश करने वाले वीर खुसरो जो एक दलित से जबरन मुस्लिम बनाया गया था उसके वीरोचित कार्य का बखान करके उसकी मान - प्रतिष्ठा सावरकर जी ने ही की।  ऐसे ही कई उज्जवल नक्षत्र, मुस्लिम और वामपंथ का चश्मा पहने इतिहासकारो ने जानबूझ कर विलुप्त हो जाने दिए।  अब जब राष्ट्रिय स्वयंसेवक  संघ ने  ऐसे विलुप्त नक्षत्रो को खोज कर उनकी मान प्रतिष्ठा का पवित्र कार्य का वीणा उठाया तो उनकी सरहना की जगह अपनी गपोड़बाज़ी से वामपंथी इतिहासकार / बुद्धजीवी समाज  और देश में अलगाव का ज़हर ही फैला रहे है और कुछ नहीं।

कहने का तातपर्य बस इतना है कि हर किसी को समाज और देश को जोड़ने का दायित्व लेना पड़ेगा।  गुज़रे दिनों के फेर में पड़कर वर्तमान और भविष्य को ख़राब करना बिलकुल बुद्धिमानी का काम नहीं है।  हर किसी को राष्ट्र की एकता के लिए अपनी सोच और विचारो में परिवर्तन लाने की आवश्यकता है।  अब जब संघ की पहल पर दलितों को साथ में जोड़ने का शुभारम्भ हो रहा है तो दलितों का भी दायित्व है कि बीती बाते भूलकर समाज में अपना बराबर का सहयोग देने के लिए अपने कदम आगे बढ़ाये।  और राष्ट्र के उत्थान का मख्य स्तम्भ बने। 

--सुधीर मौर्य
गंज जलालाबाद , उन्नाव
उत्तर प्रदेश

२०९८६९      

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