Sunday 25 May 2014

अधूरे फ़साने की मुक़म्मल नज़्म - सुधीर मौर्य


एक  अफ़साना 
जो मुक़म्मल न हो सका। 
ओ रात की चांदनी 
तुम कहती हो मै नज़्म लिखुँ उस पर। 
ओ सुबह की धुप 
क्या नाचना चाहती हो तुम 
 उस अधूरे फ़साने की 
मुक़म्मल नज़्म पर।   

--सुधीर मौर्य 

6 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस' प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (27-05-2014) को "ग्रहण करूँगा शपथ" (चर्चा मंच-1625) पर भी होगी!
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

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  2. अति सुन्दर...

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  3. अधूरे फ़साने कभी नज़्म से पूरे होते हैं क्या भला? सुन्दर प्रस्तुति सुधीरजी

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