जीने नहीं देते ये अलम हमको दयार के
जाते ही उसके रूठे हसे दिन बहार के
बेपर्दा हो गए वो निहा दर्द जिगर के
केसे छुपायं अफसुर्दा दहन बीमार के
काबा गए हम न कभी गए दिएर में
रोजे अज़ल करेंगे केसे रुख परवरदिगार के
हम गए जो अपनी जान से उनकी बला से ये
संग लिए रकीब फिरते वो मेरी मज़ार के
उनको मयस्सर ज़ीस्त के लुत्फो हयात सब
जेरे ज़मीं इश्क में 'सुधीर' दो जहाँ हार के
मेरे काव्य संग्रह 'लम्स' से
Sudheer Maurya
VPO-Ganj Jalalabad
Unnao-209869
09699787634
mauryasudheer@yahoo.in
वाह बहुत उपयोगी प्रस्तुति!
ReplyDeleteअब शायद 3-4 दिन किसी भी ब्लॉग पर आना न हो पाये!
उत्तराखण्ड सरकार में दायित्व पाने के लिए भाग-दौड़ में लगा हूँ!
ji sir, dhyanwad.
ReplyDeletebahut sundar .badhai
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shikha ji thanx
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर .... एक एक पंक्तियों ने मन को छू लिया ...
ReplyDeleteपहली बार पढ़ रहा हूँ आपको और भविष्य में भी पढना चाहूँगा सो आपका फालोवर बन रहा हूँ ! शुभकामनायें
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