Friday, 18 March 2016

मेरे ज़माने की लड़कियां - सुधीर मौर्य



अब वो नहीं गाती  
वो अपमानजनक लोकगीत 
जिनमे उन्हें दी जाती है गालियाँ 
अब वो गाती है 
सुर और ताल में अपने मन की भाषा 
और करती है खुद से वादा 
अपने भीतर न आने देने के लिए कोई हीनभावना 
अब वो पहनती है 
अपनी मर्ज़ी के लिबास अपनी मर्ज़ी से 
कभी साड़ी, कभी जींस और कभी स्कर्ट 
अब वो नहीं जाती 
बड़े घरो में चाकरी को 
जहाँ उनका होता रहता था शोषण 
अब वो जाती है 
स्कूल, कालेज, यूनिवर्सिटी और दफ्तर 
अब वो नहीं झुकातीं अपनी गर्दन 
न ही नीची होती है उनकी आँखे 
ये मेरे ज़माने की वो 
प्रगतशील लड़कियां है 
जो हर पल बनना चाहती है 
दलित लड़कियों की जगह सिर्फ लड़कियां। 
--सुधीर मौर्य   

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