अब वो नहीं गाती
वो अपमानजनक लोकगीत
जिनमे उन्हें दी जाती है गालियाँ
अब वो गाती है
सुर और ताल में अपने मन की भाषा
और करती है खुद से वादा
अपने भीतर न आने देने के लिए कोई हीनभावना
अब वो पहनती है
अपनी मर्ज़ी के लिबास अपनी मर्ज़ी से
कभी साड़ी, कभी जींस और कभी स्कर्ट
अब वो नहीं जाती
बड़े घरो में चाकरी को
जहाँ उनका होता रहता था शोषण
अब वो जाती है
स्कूल, कालेज, यूनिवर्सिटी और दफ्तर
अब वो नहीं झुकातीं अपनी गर्दन
न ही नीची होती है उनकी आँखे
ये मेरे ज़माने की वो
प्रगतशील लड़कियां है
जो हर पल बनना चाहती है
दलित लड़कियों की जगह सिर्फ लड़कियां।
--सुधीर मौर्य
bahut aabhar sir.
ReplyDeletebahut badhiya
ReplyDeletebahut shukriya..
Deleteबहुत अच्छी प्रस्तुति ...
ReplyDeleteबहुत आभार कविता जी।
Deleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteधन्यवाद सुमन जी।
Delete" गागर में सागर".... अति सुन्दर अभिव्यक्ति।
ReplyDeletehttp://safaltasutra.com/
धन्यवाद।
Deleteवाह, बहुत प्रभावशाली रचना
ReplyDeleteधन्यवाद।
Delete