Saturday, 6 February 2016

दलित, साजिश और लोकगीत - सुधीर मौर्य

जिन्हे हम और वो खुद कहते है दलित
उनके टोले की लड़कियाँ
अपने कच्चे घर के आँगन में गाती है
लयबद्ध स्वरों में
'ये बाम्हन का छोरा न माने रे'
मैं सुनता हूँ ये लोकगीत
और सोचता हूँ रात दिन
वो कौन सी लड़की रही होगी इस टोले की
जिसके होठों से दर्द बनके
निकले होगे ये स्वर कुचले जाने के बाद
और कितनी साजिशों ने
बनाया होगा इसे एक लोकगीत।

--सुधीर मौर्य

2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (08-02-2016) को "आयेंगे ऋतुराज बसंत" (चर्चा अंक-2246) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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