जिन्हे हम और वो खुद कहते है दलित
उनके टोले की लड़कियाँ
अपने कच्चे घर के आँगन में गाती
है
लयबद्ध स्वरों में
'ये बाम्हन का छोरा न माने रे'
मैं सुनता हूँ ये लोकगीत
और सोचता हूँ रात दिन
वो कौन सी लड़की रही होगी इस टोले
की
जिसके होठों से दर्द बनके
निकले होगे ये स्वर कुचले जाने
के बाद
और कितनी साजिशों ने
बनाया होगा इसे एक लोकगीत।
--सुधीर मौर्य