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Saturday, 26 December 2015

अबूझ किताब - सुधीर मौर्य

उसने कहा था एक दिन खुली किताब हूँ मैं। पढ़के जान लो मुझे। एक सर्द शाम में, मैं ये जान पाया था। उस किताब की भाषा मेरे लिए अबूझ थी। और उसी शाम मुझे अनपढ़ कह कर उसने वो किताब किसी पढ़े हुए की सेल्फ में रख दी थी।
और कुछ बरसों बाद उस पढ़े हुए इंसान ने उस सेल्फ को बेच दिया था कबाड़ खाने में उस किताब के साथ।
आज गर्द से सनी वो किताब मेरे सामने है पर आज भी उस किताब की भाषा मेरे लिए अबूझ ही है।
--सुधीर मौर्य

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