Thursday 16 April 2015

समलैंगिकता - कल और आज

आज समाज में समलैंगिकता भी एक ज्वलंत मुद्दा है। भले ही कई वेस्टर्न कंट्रीज में समलैंगिक शादियों को मान्यता मिल चुकी है पर भारत में इसे सामाजिक स्वीकृति नहीं मिली है। 



 सेक्स सायकोलॉजिस्ट्स और एन्थ्रोपोलॉजिस्ट ने अपने रिसर्च में यह पाया है कि होमोसेक्शुअलटी एक  नेचुरल बिहैवियर है। यहां तक जानवरों में भी होमोसेक्शुअल ट्रेंड्स पाए गए हैं। मशहूर विद्वान जी. हैमिल्टन ने बंदरों और लंगूरों के सेक्शुअल बिहैवियर की स्टडी करने के बाद पाया कि कम उम्र के बंदर एक ऐसे स्टेज से गुजरते हैं जब वे पूरी तरह से समलैंगिक होते हैं। एक अन्य विद्वान जुकरमेन ने अपने ऑब्जर्वेशन में यह पाया है कि समलैंगिकता की प्रवृत्ति नर बंदरों से ज्यादा मादा में पाई जाती है। वयस्क बंदरों में उभयलिंगी मैथुन (Bi-sexualism) की प्रवृत्ति आम पाई गई है।

 आदिम युग में भी जब सेक्स संबंधों को लेकर किसी तरह का नैतिक बोध और मानदंड विकसित नहीं हुआ था, तब होमोसेक्शुअल संबंध आम थे। प्रसिद्द मानव-शास्त्री मार्गरेट मीड ने आदिम समाजों के अपने अध्य्यन में समलैंगिकता को एक सामान्य व्यवहार के रूप में रेखांकित किया है। ट्राइबल सोसाइटी में आज भी समलैंगिकता का काफी प्रचलन है और कई कबीलों में तो इससे जुड़े रिचुअल्स भी हैं। कुल मिलाकर ऐसे कई समाज हैं जहां होमोसेक्शुअलटी को लेकर कोई टैबू नहीं है।

 प्राचीन महान सभ्यताओं में भी समलैंगिकता को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। लगभग पांच हजार साल पहले असीरिया में समलैंगिक संबंधों का प्रचलन था और इसे अस्वाभाविक अथवा काम-विकृति नहीं माना जाता था। प्राचीन मिस्र में होरस और सेत जैसे प्रमुख देवताओं को समलैंगिक बताया गया है। प्राचीन यूनान में समलैंगिकता को सैनिक गुणों के साथ-साथ बौद्धिक, कलात्मक, सौंदर्यपूर्ण और नैतिक गुणों के लिए भी आदर्श माना गया। प्राचीन रोम में भी समलैंगिकता को बुरा नहीं माना जाता था।

 पुनर्जागरण काल में यूरोप में बहुत से विचारक, कलाकार, साहित्यकार, चिंतक और दार्शनिक समलैंगिक प्रवृत्ति के थे। दांते ने अपने गुरु लातिनी के बारे में लिखा है कि वह समलैंगिक थे। प्रसिद्ध दार्शनिक रूसो ने लिखा है कि युवावस्था के दौरान उसमें समलैंगिक मैथुन के प्रति तीव्र आकर्षण था। मानवतावादी विचारक और कवि म्यूरे भी समलैंगिक थे और इस वजह से उनका जीवन खतरों से भरा था, क्योंकि उस वक्त समलैंगिकता उजागर हो जाने के बाद कठोर दंड का प्रावधान था। मध्यकाल यानी जिसे यूरोप में अंधकार का युग कहा जाता है, समलैंगिकों को जिंदा जला दिया जाता था। 

 समलैंगिकता और उभयलिंगता को लेकर एक भ्रम की स्थिति इस विषय का अध्ययन करने वाले विद्वानों में भी बनी रही है। कई अध्येताओं ने स्वीकार किया है कि मनुष्य और अन्य जीवों में भी पुरुष और स्त्री के भेद को हर स्तर पर परिभाषित कर पाना मुश्किल है। ऐसे लोग शायद ही मिलें जो समलैंगिक मैथुन के साथ विपरीत लिंगी मैथुन करते हों। मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि पुरुष और स्त्री के बीच शारीरिक रूप से अंतर स्पष्ट हैं, पर मानसिक रूप से यह अंतर पूरी तरह साफ नहीं है। सेक्स एक मनो-शारीरिक प्रक्रिया है, पर भूलना नहीं होगा कि एक भावना के रूप में इसका स्थान मन में ही है। मनोविश्लेण सिद्धांत के जनक फ्रायड ने 1905 में ही यह लिखा था, "अभी तक मुझे किसी पुरुष अथवा स्त्री के एक भी ऐसे मनेविश्लेषण से साबका नहीं पड़ा, जिसमें समलैंगिकता का यथेष्ट तत्व आता हो।" भारतीय पौराणिक ग्रंथों में अर्द्ध-नारीश्वर की जो परिकल्पना मिलती है, उससे भी यह स्पष्ट है। 

 होमोसेक्शुअलटी को लेकर पूरी दुनिया में काफी शोध हुए हैं। इस विषय पर सबसे महत्त्वपूर्ण अधययन जर्मन विद्वान मैग्नस हिर्शफेल्ड ने प्रस्तुत किया। सन् 1914 में प्रकाशित उनकी पुस्तक 'डर होमेसेक्सुआलिटाट' को उस वक्त इस विषय का विश्वकोश माना गया। लेकिन 18वीं सदी के अंत में जर्मनी में दो पुरुषों की मानसिक दशाओं का वर्णन किया गया था जो एक-दूसरे के प्रति जबरदस्त यौन आकर्षण महसूस करते थे। हास्ली, कैस्पर और उलरीखस ने इस प्रवृत्ति का व्यापक अध्ययन किया और इसे 'यूरेनवाद' नाम दिया। सन् 1870 के बाद वेस्टफाल ने एक समलैंगिक स्त्री का जीवन-इतिहास प्रकाशित किया और बताया कि यह प्रवृत्ति उसमें जन्मजात थी, इसलिए इसे अनैतिक नहीं कहा जा सकता। 


अमेरिकी विद्वान एम.डब्ल्यू.पेक ने अपने सर्वेक्षण में यह पाया था कि बोस्टन को कॉलेजों में 60 लोगों में 7 समलैंगिक थे और 6 ने तो यह स्वीकार किया था कि वे समलैंगिक गतिविधियों में लिप्त रहे हैं।
जी.वी.हैमिल्टन ने 100 विवाहित पुरुषों पर एक सर्वेक्षण किया था। उन्होंने पाया कि 100 में सिर्फ़ 44 ही ऐसे थे जिन्हें बचपन के समलैंगिक खेलों की याद नहीं आती थी। 46 पुरुषों और 23 स्त्रियों ने उन्हें बताया था कि किशोरावस्था में अपने ही लिंग के व्यक्तियों से निकटता के दौरान वे कामोत्तेजित हो जाते थे।
कैथराइन डेविस ने लिखा है कि सर्वेक्षण के दौरान 31.7 प्रतिशत औरतों ने समलैंगिक भावनात्मक संबंधों को स्वीकार किया और 27.5 प्रतिशत विवाहित महिलाओं ने माना कि बचपन में वे समलैंगिक सेक्स से जुड़े खेल खेलती थीं। यह माना जाता है कि समलैंगिक रति के लिए 'यौन विपरीतता' शब्द का प्रचलन सबसे पहले इटली में हुआ। रीत्ति, तमासिया और लोम्ब्रोसो जैसे विद्वानों ने समलैंगिक कामुक भावनाओं और क्रियाओं का विशद वर्णन किया है। फ्रांस में सबसे पहले इस क्षेत्र में शार्को और मनियान ने 1882 में शुरू किया जिसे बाद में फेरे, सेरिए और सां-ला जैसे शोधकर्ताओं ने आगे बढ़ाया। रूस मे तार्नोवस्की ने इस प्रवृत्ति के अध्ययन की शुरुआत की।

इंग्लैंड में साहित्य-मर्मज्ञ जॉन एडिंगटन ने इस विषय पर दो पुस्तिकाओं का प्रकाशन किया। एक 'प्राचीन यूनान में समलैंगिकता' और दूसरी 'समलैंगिक व्यभिचार की आधुनिक समस्याएं' एडवर्ड कार्पेन्टर ने इस विषय पर एक पुस्तिका और बाद में जर्मन भाषा में एक ग्रंथ का प्रकाशन किया। फ्रांसीसी विद्वान राफालोविच ने इस विषय पर महत्त्वपूर्ण अध्ययन प्रस्तुत किया था। समलैंगिकता पर हेवलॉक एलिस की पुस्तक सबसे पहले 1896 में जर्मनी में, फिर इंग्लैंड और अमेरिका में प्रकाशित हुई। वहां कीर्नान और हाइड्स्टन जैसे विद्वानों ने पहले ही इस विषय पर काम किया था। हेवलॉक एलिस का मानना है कि इस विषय पर सबसे उल्लेखनीय पुस्तक मेरेनान की है जो 1932 में प्रकाशित हुई और स्पेनिश से अनूदित है।

वात्स्यायन के कामसूत्र में समलैंगिकता का उल्लेख हुआ है। वह इसे अनुचित बताते हैं। वैसे, उनके वर्णन से यह स्पष्ट है कि प्राचीन भारत में समलैंगिकता का काफी प्रचलन था। वात्स्यायन हिजड़ों, दासों, मालिशियों आदि का उल्लेख करते हैं जिनके साथ आम तौर पर समलैंगिक संबंध बनाए जाते थे। देवराज चानना की पुस्तक 'प्राचीन भारत में दास प्रथा' में ऐसे वर्णन मिलते हैं जिनसे स्पष्ट होता है कि समलैंगिक संबंधों के लिए दासों निम्न वर्ग के युवा लड़कों का इस्तेमाल भद्र जन किया करते थे। पर समलैंगिक रति और एनल सेक्स में फ़र्क किया जाना जरूरी है। एनल सेक्स या sodomy समलैंगिकता का पर्याय नहीं सकता, क्योंकि समलैंगिकता में महज वासना ही नहीं, बल्कि प्रेम का तीव्र आकर्षण मौजूद होता है। यौन मनोवैज्ञानिकों ने इसे इसी रूप में देखने की कोशिश की है।

साहित्य, फिल्म, पेंटिंग्स एवं अन्य कला विधाओं में समलैंगिकता का काफी चित्रण हुआ है। इस्मत चुगतई की कहानी 'लिहाफ' स्त्री समलैंगिकता का पहली बार चित्रण हुआ जिसने उस ज़माने में सनसनी मचा दी थी। यह उर्दू कहानी 40 के दशक में प्रकाशित हुई थी। इसे अश्लील करार दिया गया और इस पर मुकदमा भी चला। नागार्जुन के उपन्यास 'रतिनाथ की चाची' में भी समलैंगिकता का चित्रण है। पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र' की आत्मकथा 'अपनी ख़बर' में युवकों और किशोरों की समलैंगिक प्रवृत्तियों का यथार्थ वर्णन मिलता है।

फिल्म 'फ़ायर' में लेस्बियन संबंधों का खुला चित्रण है। इसमें शबाना आजमी और नंदिता दास के बीच समलैंगिक सेक्स संबंधों के बोल्ड सीन्स फिल्माए गए हैं। मधुर भंडारकर की फिल्म 'चांदनी बार' में एक ऐसा दृश्य है जो समलैंगिक प्रेम नहीं, बल्कि सोडोमी को दिखाता है। एनल सेक्स स्त्री के साथ भी किया जाता है। इससे स्पष्ट है कि समलैंगिकता और एनल सेक्स अलग-अलग चीजें हैं। इस विषय की जानकारी नहीं रखने वाले समलैंगिकता को एनल सेक्स का पर्याय मान बैठते हैं, पर वे लेस्बियनिज्म को भूल जाते हैं जहां पेनट्रेटिव सेक्स संभव ही नहीं।

-- सुधीर

9 comments:

  1. बहुत सारगर्भित आलेख...

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  2. सुधीर, सुन्दर आलेख और संतुलित तरीके से इस विषय पर बात करने के लिए धन्यवाद. पुरानी किताबों में इसके बारे में क्या लिखा सोचा गया, इसको खोजने के लिए अवश्य मेहनत करनी पड़ी होगी जिसका लाभ पढ़ने को मिला!

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    1. ji sunil sir, kai article padne ke bad mene ye article likha...isme mera kuch nahi..

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  3. Nai generation ka naya mudda..

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